ओ३म् “सर्गारम्भ से वेद बिना भेदभाव मनुष्यों की अविद्या दूर कर रहे हैं”
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हमारी यह सृष्टि सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सच्चिदानन्दस्वरूप, अनादि व नित्य परमात्मा से बनी है। ईश्वर, जीव तथा प्रकृति तीन अनादि व नित्य सत्तायें हैं। सृष्टि प्रवाह से अनादि है। इसमें सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहा है। सभी अनन्त जीव परमात्मा की अनादि व नित्य प्रजा वा सन्तानें हैं। इनका गुण, कर्म व स्वभाव जन्म व मरण धारण करना तथा सद्कर्मों से मोक्ष को प्राप्त होना है। सभी जीव जन्म व मरणधर्मा हैं। यह जीव मनुष्य योनि प्राप्त होने पर जो शुभाशुभ वा पाप-पुण्य कर्म करते हैं, उसके अनुसार ही इन्हें भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म, सुख एवं दुःखों की प्राप्ति होती है। मनुष्य योनि उभय योनि होती है जिसमें मनुष्य पूर्वजन्मों के अभुक्त कर्मों को भोक्ता है और नये शुभ व अशुभ कर्मों को भी करता है। इस जन्म के शुभ कर्म ही मनुष्य की आत्मिक व सामाजिक उन्नति करने के साथ मोक्ष तक ले जाने में सहायक होते हैं। जीवात्मा का मनुष्य योनि में जन्म होने पर उसे भाषा एवं ज्ञान की आवश्यकता होती है। यह उसे परम्परा के अनुसार अपने माता, पिता व आचार्यों से प्राप्त होता है। सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि होती है। तब माता, पिता तथा आचार्य नहीं होते अतः अमैथुनी सृष्टि में परमात्मा मनुष्य योनि में जीवात्माओं के कल्याण के लिये चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा के द्वारा चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान देता है। यह चार वेद संसार में विद्यमान समस्त सत्य विद्याओं के ग्रन्थ हैं। जिस प्रकार आंखों से हम वस्तुओं को देखते हैं, उसी प्रकार वेदों से ही ईश्वर, जीवात्मा तथा सृष्टि को जाना जाता वा देखा जाता है तथा मनुष्यों के कर्तव्य व व्यवहारों का ज्ञान भी वेदों से ही होता है।
परमात्मा सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न ऋषियों को वेदों का ज्ञान, भाषा एवं वेदार्थ सहित, देता है। यही ऋषि ब्रह्मा ऋषि को वेदों का ज्ञान देकर मिलकर वेदों का प्रचार करते हैं जिससे वेदाध्ययन व प्रचार की परम्परा आरम्भ होती है और वह सृष्टि के भोग काल तक विद्यमान रहती है। इसी परम्परा से वेदों का ज्ञान हम तक पहुंचा है। हमसे पूर्व उत्पन्न हुए अगणित ऋषि और वेदों के विद्वानों की कृपा से ही वेदज्ञान हम तक पहुंचा है। हमारा भी कर्तव्य है कि हम वेदाध्ययन कर वेदों का ज्ञान प्राप्त करें और इसे आने वाली पीढ़ियों को इसके यथार्थ अर्थों अर्थात् वैदिक पदों के अर्थों सहित सौंप जायें। यही मनुष्य का सर्वोत्तम व प्रमुख कर्तव्य है। इसी को करने से मनुष्य का कल्याण होता है। जो इस कार्य को करते हैं उनकी अविद्या दूर होती है। वह ईश्वर सहित जीवात्मा और संसार को इसके यथार्थरूप में जान पाते हैं। ज्ञान ही मनुष्य की उन्नति, सुख व कल्याण का कारण होता है। मनुष्य जीवन को उत्तमता से जीने का श्रेष्ठ व सर्वोत्तम मार्ग वैदिक जीवन व्यतीत करना ही निश्चित होता है। सभी मनुष्यों को इस तथ्य को जानकर वेदों की शरण में आना चाहिये और अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों की हित व अहित करने वाली बातों के स्थान पर वेदों की पूर्णता से युक्त कल्याणकारी बातों को मानना चाहिये।
वेद सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा द्वारा प्रदत्त ज्ञान है जो सर्वांश में सत्य एवं मनुष्यों के लिए सर्वाधिक उपादेय एव कल्याणकारी है। वेद मनुष्य के अज्ञान व अविद्या को दूर करते हैं। वेदों में लेशमात्र भी अविद्या नहीं है जबकि संसार में प्रचलित मत-मतान्तर अविद्या से भरपूर हैं। वेदों से ईश्वर व जीवात्मा सहित मनुष्य के कर्तव्यों का जो ज्ञान प्राप्त होता है वह मत-मतान्तरों के अविद्यायुक्त ग्रन्थों से प्राप्त नहीं होता। अतः मनुष्यों के लिये वेदों का महत्व सर्वाधिक है एवं निर्विवाद है। सृष्टि के आरम्भ से अद्यावधि तक न केवल भारत अपितु विश्व के सभी लोग वेदों से लाभान्वित होते आ रहे हैं। महाभारत से पूर्व तक सभी देशों में वेदों का ही प्रचार होता था। विश्व के अन्य देशों के लोग भी वेदाध्ययन के लिए भारत आते थे और अपने अपने योग्य वेदों व वेदों के अनुकूल ज्ञान को प्राप्त कर अपने देशों में जाकर वेदों के अध्ययन व अध्यापन को प्रवृत्त करते थे। मनुस्मृति इस कथन की पुष्टि करती है। वेदों में सब मनुष्यों को एक ईश्वर की सन्तान माना गया है। किसी मनुष्य के साथ उसके रंग, रूप, आकार, प्रकार, जन्म आदि के आधार पर भेदभाव करना वेद की शिक्षाओं के विरुद्ध है। जन्मना जातिवाद वेद की विचारधारा व भावनाओें के विरुद्ध एवं मानव समाज के लिए हानिप्रद है। स्त्री व पुरुष सबको वेद पढ़ने का अधिकार है और वेद पढ़कर अपने-अपने योग्य कर्म करने का अधिकार है। वेद सबको एक सत्यस्वरूप, निराकार, सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, अनादि, नित्य, अविनाशी, न्यायकारी, सृष्टिकर्ता सत्ता ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना करने का ही विधान करते हैं। ऐसा करके ही संसार में सुख व कल्याण की वृद्धि हो सकती है। अतः वेदों का ही सब मनुष्यों को अध्ययन कर उसकी शिक्षाओं के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करना चाहिये। वेद ही मनुष्य का परम धर्म है। वेद विरुद्ध प्रत्येक कथन, मान्यता व सिद्धान्त त्याग करने योग्य है। ऐसा न करने से ही संसार में समस्यायें एवं भेदभाव उत्पन्न होते हंै।
सृष्टि के आरम्भ में वेदों के प्रकाश से ही सभी मनुष्यों की अविद्या वा अज्ञान दूर हुआ था। इसके बाद महाभारत काल तक संसार के सभी देशों में वेदों का प्रचार रहा और सभी देश व उसके अनुयायी वेदों का ही अध्ययन व वेदों को ही अपना परम धर्म मानते रहे। वेदों की अप्रवृत्ति के कारण ही मत-मतान्तर अस्तित्व में आये हैं। मत-मतान्तरों में अविद्या विद्यमान है। यह अविद्या मनुष्य की सबसे बड़ी शत्रु है। इससे मनुष्य की हानि व पतन होता है। अविद्या मनुष्यों को सत्य कर्मों से दूर करती है तथा उनमें अज्ञान, लोभ, मोह व अहंकार उत्पन्न कर उनसे नाना प्रकार के अहितकारी दुष्कर्मों को कराती है। इस अविद्या को दूर करना ही सब मनुष्यों का कर्तव्य व दायित्व है जिसे वेदाध्ययन करने तथा वेदों का प्रचार करके ही दूर किया जा सकता है। यह कार्य महाभारत युद्ध के बाद अवरुद्ध हो गया था। इसी कारण महाभारत का उत्तरकालीन देश व समाज अवनति व पतन से ग्रस्त रहा। ऐसे ही वातावरण में ऋषि दयानन्द (1825-1883) का गुजरात के टंकारा नामक ग्राम में जन्म हुआ था। उनके मन में अनेक जिज्ञासायें उत्पन्न हुईं थीं जिसका समाधान नहीं हो सका था। इस कारण उन्होंने सत्य धर्म एवं विद्या का अन्वेषण किया और वह एक सिद्ध योगी बनकर वेदज्ञान को प्राप्त करने में समर्थ हुए। वेदज्ञान प्राप्त कर उनकी सभी जिज्ञासाओं का समाधान मिल गया। उनमें ऐसी कोई शंका व जिज्ञासा न रही जिसका उत्तर प्राप्त करना शेष रहा हो। वेदों के ज्ञान को प्राप्त कर उन्होंने अपने गुरु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरसवती जी की प्रेरणा से देश व समाज के सबसे बड़े शत्रु अविद्या का नाश करने के लिये तथा विद्या की वृद्धि करने हेतु वेद प्रचार का कार्य किया। इसी का परिणाम उनके द्वारा देश के अनेक स्थानों पर जाकर वेदोपदेश देना, असत्य का खण्डन तथा सत्य का मण्डन, वेदेतर मताचार्यों से शास्त्र चर्चा व शास्त्रार्थ, ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप का प्रचार, ईश्वर के ध्यान व वायुशोधन हेतु सन्ध्या व अग्निहोत्र यज्ञ का विधान व इसको महत्व देना, अन्धविश्वास दूर करना, सामाजिक परम्पराओं में निहित अज्ञान व पाखण्ड सहित सभी भेदभावों को दूर करने के कार्य करना था। उन्होंने गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली की पूरी योजना भी प्रस्तुत की जिसके आधार पर देश में गुरुकुल चले और देश को वैदिक विद्वान मिले जो वर्तमान में वेदों के रहस्यों को लेखन व प्रचार द्वारा देश की जनता तक पहुंचा रहे हैं। आर्यसमाज की स्थापना भी सत्य वेदार्थ के प्रचार के लिये ही ऋषि दयानन्द ने की थी। वेद मनुष्य की सबसे बड़ी उत्तम व महत्वपूर्ण निधि है। इसकी उपमा अमृत से दी जा सकती है। वेदज्ञान का ग्रहण, आचरण व प्रचार ही वस्तुतः अमृत की प्राप्ति है। वेद ज्ञान से मनुष्य अपनी आत्मा व परमात्मा सहित इस सृष्टि को यथार्थस्वरूप में जान पाता है। वेद ज्ञान से रहित जीवन प्रायः एक पशु जीवन के समान है जो केवल धनोपार्जन, सुख व सुविधाओं को एकत्र कर उनके भोग को ही जीवन का उद्देश्य मानता है। इसके विपरीत वेद मनुष्य को सद्कर्म व परोपकार करने सहित त्याग व अपरिग्रह का जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देते हैं। अतः वेद को सम्पूर्ण मनुष्य जाति को अपने ही हित व कल्याण के लिये अपनाना चाहिये। यदि नहीं अपनायेंगे तो वेदाध्ययन व वेदानुकूल जीवन व्यतीत करने से होने वाले लाभों से संचित रहेंगे जिससे उनका परजन्म व मोक्ष उनसे दूर होकर उन्हें शताब्दियों व युगों युगों तक दुःखों से पीड़ित करते रहेंगे।
सृष्टि के आरम्भ से ही ऋषियों ने वेदों का जन-जन में प्रचार किया था। महाभारत के बाद अवरुद्ध उसी परम्परा को ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ऋषि दयानन्द ने पूरे विश्व के मनुष्यों के कल्याण के लिये पुनः प्रवृत्त किया है। वेदाध्ययन, वेदप्रचार तथा वेदानुकूल जीवन ही मनुष्य जीवन के प्रमुख हितकारी व सुखदायक कर्तव्य हैं। इससे मनुष्य का जन्म व परजन्म सभी सुधरते व सधते हैं। आज सर्वत्र अविद्या का प्रभाव है। मत-मतान्तरों में भी अविद्या भरी है। ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में इसका दिग्दर्शन कराया है। समस्त वेदों का सार भी उन्होंने सत्यार्थप्रकाश के प्रथम दस समुल्लासों में बताने का प्रयत्न किया है। इससे मनुष्य की प्रायः सभी शंकाओं का समाधान हो जाता है और मनुष्य अपने जीवन को श्रेय व कल्याण मार्ग पर चलाकर अक्षय सुखों को प्राप्त हो सकता है। अतः सब मनुष्यों को अविद्या दूर करने के लिये वेदों की ओर ही लौटना होगा। वेदों में ही अक्षय ज्ञान व सुख का कारण विद्या विद्यमान है। वेद और वेदांग एवं वेदों के उपांग ही अविद्या दूर करने में समर्थ हैं। वेदों के प्रचार व प्रसार से ही संसार से सभी अन्धविश्वास, पाखण्ड व भेदभाव दूर किये जा सकते हैं। वेदों के ज्ञान के प्रसार से ही देश, समाज व विश्व में शान्ति स्थापित की जा सकती है। सृष्टि के आरम्भ से ही ईश्वर प्रदत्त वेद सभी मनुष्यों की बिना किसी भेदभाव के विद्या की आवश्यकता को पूरा कर रहे हैं। हमें अपने जीवन में अन्य कार्यों को करते हुए वेदाध्ययन पर ध्यान देना चाहिये। इसके लिए हमें जीवन में एक बार सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभूमिका ग्रन्थों का अवश्य अध्ययन करना चाहिये। इसी में हमारा हित, सुख, कल्याण तथा परजन्मों के सुख निहित हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य