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आज का चिंतन

गया , पुष्करादि तीर्थ विश्लेषण

Dr D K Garg

गया तीर्थ :-
प्रचलित मान्यताएं:फल्गु नदी के तीर पाषाण पर मनुष्य के पग का चिन्ह बना के उसका ‘विष्णुपद’ नाम रख दिया है l और यह बात प्रसिद्द कर दी है कि वहां श्राद्ध , पिंडदान करने से पितरों की मुक्ति हो जाती है l पितृपक्ष प्रारंभ होने के साथ ही गयाजी के फल्गु नदी के तट सहित विभिन्न वेदियों पर हजारों श्रद्धालु पिंडदान व तर्पण कर रहे होते है
ऐसी मान्यता है कि पितृपक्ष में श्राद्ध कर्म कर पिंडदान और तर्पण करने से पूर्वजों की सोलह पीढ़ियों की आत्मा को शांति और मुक्ति मिल जाती है और इस मौके पर किया गया श्राद्ध पितृऋण से भी मुक्ति दिलाता है।
इसलिए यह मोक्ष की भूमि कहलाती है।
विश्लेषण : जो लोग आँख के अंधे गाँठ के पुरे उनके जाल में जा फसते हैं, उनकी गया वाले उलटे उस्तरे से खूब हजामत बनाते हैं l वह परधनहरण पेट पालक ठगलीला केवल झूंठ ही की गठरी है l जैसा कि सत्य शास्त्रों में लिखी हुई आगे की कथा देखने से सब को प्रगट हो जायेगा।
बृहदारण्यक उपनिषद में लिखा है -(प्राणो वै बलं) इन वचनो का अभिप्राय यह है कि अत्यंत श्रद्धा से गया -संशक प्राण आदि में परमेश्वर की उपासना करने से जीव की मुक्ति हो जाती है l प्राण में बल और सत्य प्रतिष्ठित है, क्योंकि परमेश्वर प्राण का वह प्राण है, और उसका प्रतिपादन करने वाला गायत्री मंत्र है कि जिसको ‘गया’ कहते हैं l किसलिये कि उसका अर्थ जान के श्रद्धासहित परमेश्वर की भक्ति करने से जीव सब दुखों से छूटकर मुक्ति को प्राप्त हो जाता है l तथा प्राण का भी नाम ‘गया’ है, उसको प्राणायाम की रीति से रोक के परमेश्वर की भक्ति के प्रताप से पितर अर्थात ज्ञानी लोग सब दुखों से रहित होकर मुक्त हो जाते हैं l क्योकि परमेश्वर प्राणों की रक्षा करने वाला है l इसलिये ईश्वर का नाम गायत्री और गायत्री का नाम ‘गया’ है l
तथा निघराटु में घर, सन्तान और प्रजा इन तीनों का नाम भी ‘गया’ है l मनुष्यों को इनमें अत्यंत श्रद्धा करनी चाहिए l इसी प्रकार माता पिता आचार्य और अथिति की सेवा तथा सबके उपकार उन्नति के कामों की सिद्धि करने में जो अत्यंत श्रद्धा करनी है, उसका नाम ‘गयाश्राद्ध’ है l
तथा अपने संतानों को सुशिक्षा से विद्या देना और उनके पालन में अत्यंत प्रीति करनी, इसका नाम भी ‘गयाश्राद्ध’ है l
तथा धर्म से प्रजा का पालन, सुख की उन्नति, विद्या का प्रचार, श्रेष्ठों की रक्षा, दुष्टों को दराड देना, और सत्य की उन्नति आदि धर्म के काम करना, ये सब मिलकर अथवा पृथक- पृथक भी ‘गयाश्राद्ध’ कहाते हैं l
इस अत्यंत श्रेष्ठ कथा को छोड़ के विद्याहीन पुरुषों ने जो मिथ्या कथा बना रखी है, उसको कभी न मानना l
और जो वहां पाषाण के ऊपर मनुष्य के पग का चिन्ह बना कर उसका नाम ‘विष्णुपद’ रखा है, सो सब मूल से ही मिथ्या है l क्योंकि व्यापक परमेश्वर, जो सब जगत का करने वाला है उसी का नाम ‘विष्णु’ है l
देखो यहाँ निरुक्तकार ने कहा है कि (पूषेत्यथं ) ‘विष्लृ’ धातु का अर्थ व्यापक होने, अर्थात सब बराबर जगत में प्रविष्ट रहना वा जगत को अपने में स्थापन कर लेने का है l इसलिये निराकार ईश्वर का नाम ‘विष्णु’ है l
‘क्रमु पादविक्षेपे’ यह धातु दूसरी वस्तु को पगों से दबाना वा स्थापन करना, इस अर्थ को बतलाता है, इसका अभिप्राय है कि भगवान अपने पाद अर्थात प्रकृति परमाणु आदि सामर्थ्य के अंशों से सब जगत को तीन स्थानों में स्थापन करके धारण कर रहा है l अर्थात भारसहित और प्रकाशरहित जगत को पृथ्वी में, परमाणु आदि सूक्ष्म द्रव्यों को अंतरिक्ष में, तथा प्रकाशमान सूर्य और ज्ञानेन्द्रिय आदि को प्रकाश में l इस रीति से तीन प्रकार के जगत को ईश्वर ने रचा है l फिर इन्ही तीन भेड़ों में एक मूढ़ अर्थात ज्ञानरहित जो जड़ जगत है, वह अंतरिक्ष अर्थात पोल के बीच में स्थिति है l सो वह केवल परमेश्वर ही की महिमा है कि जिसने ऐसे ऐसे अद्भुत पदार्थ रच के सब को धारण कर रक्खा है l
(यदिदं किंचम) – इस ‘विष्णुपद’ के विषय में यास्कमुनि ने भी इस प्रकार व्याख्यान किया है कि यह सब जगत सर्वव्यापक परमेश्वर ने बनाकर, त्रिधा -इसमें तीन प्रकार की रचना दिखलाई है, जिससे मोक्षपद को प्राप्त होते हैं l वह ‘समारोहण’ कहाता है l सो विष्णुपद गयशिर अर्थात प्राणों के परे है, उसको मनुष्य लोग प्राण में स्थिर होके, प्राण से प्रिय अंतर्यामी परमेश्वर को प्राप्त होते हैं, अन्य मार्ग से नहीं क्योंकि प्राण का भी प्राण और जीवात्मा में व्याप्त जो परमेश्वर है, उससे दूर जीव वा जीव से दूर वह कभी नहीं हो सकता l उसमें से सूक्ष्म जो जगत का भाग है, सो आँख से दिखने योग्य नहीं हो सकता l किन्तु जब कोई पदार्थ परमाणुओं के संयोग से स्थूल हो जाता है, तभी वह नेत्रों से देखने में आता है l यह दोनों प्रकार का जगत जिसके बीच में ठहर रहा है, और जो उस में परिपूर्ण हो रहा है, ऐसे परमात्मा को ‘विष्णुपद’ कहते हैं l
इस सत्य मार्ग को न जान के अविद्वान लोगों ने पाषाण पर जो मनुष्य के पग का चिन्ह बनाकर उसका नाम विष्णुपद रख छोड़ा है, सो सब मिथ्या बातें हैं l

पुष्कर तीर्थ : -ब्रह्मा जी का मंदिर
राजस्थान के पुष्कर शहर में एक झील है। कहते है की ये झील भगवान ब्रह्मा द्वारा निर्मित है। पंच सरोवर’ यानी पाँच सबसे पवित्र झीलों में से एक कहा है। लोगों का मानना ​​है कि पुष्कर झील के पानी में डुबकी लगाने से आप पापों और बीमारियों से छुटकारा पा सकते हैं।
कहानी यह है कि भगवान ब्रह्मा की पत्नी सरस्वती ने विशेष रूप से जोर देकर कहा था कि वह केवल तभी अपने लिए समर्पित मंदिर स्वीकार करेंगी जब भगवान ब्रह्मा को भी एक मंदिर मिलेगा। और इसलिए पुष्कर का ब्रह्मा मंदिर 14वीं शताब्दी में बनाया गया था।इसी तरह, ब्रह्मा मंदिर के अलावा, पुष्कर में सैकड़ों अन्य मंदिर हैं जो विभिन्न हिंदू देवताओं को समर्पित हैं।
पुष्कर शहर पूरी दुनिया में भगवान ब्रह्मा को समर्पित एकमात्र मंदिर है। हिंदू धर्म में पुष्कर की यात्रा को मोक्ष प्राप्ति के लिए की जाने वाली सबसे बड़ी तीर्थ यात्रा माना जाता है।

विशेलषण : पुष्कर जी और गया तीर्थ –क्योकि दोनों की मान्यताये लगभग एक जैसी ही है।
१ तीर्थ किसे कहते है –शाश्त्रो में तीर्थ किसे कहते है ये भी समझ लेते है। तीर्थ शब्द का अर्थ प्राय: लोग गंगा स्नान, पुष्कर, हरिद्वार, बाला जी,अमरनाथ,वैष्णो देवी,केदारनाथ ,बद्रीनाथ, तिरुपति बाला जी आदि की यात्रा अथवा सूर्य ग्रहण पर कुरुक्षेत्र आदि की यात्रा से करते हैं. तीर्थों में स्नान आदि से धार्मिक पुस्तकों में लाभों का वर्णन किया गया हैं जैसे जो सैकड़ों सहस्त्रों कोश दूर से भी गंगा-गंगा कहें, तो उसके पाप नष्ट होकर वह विष्णुलोक अर्थात वैकुण्ठ को जाता हैं (ब्रहम पुराण १७५/८२) (पदम् पुराण उत्तर खंड २३/२। इसी प्रकार पुष्कर, कुरुक्षेत्र, गंगा और मगध देश में स्नान करके प्राणी अपनी सात पूर्व की और सात परली पीढ़ियों कप तार लेता हैं. गंगा नाम लेने से पाप से बचाती हैं, दिखने पर हर्ष देती हैं, स्नान करने और पीने से सातवें कुल तक पवित्र कर देती हैं. कलियुग में गंगा दर्शन से सौ जन्मों के पाप, स्पर्श करने से दो सौ जन्मों के पाप और स्नान तथा पीने से हजारों पाप नष्ट करती हैं. (आदि पुराण पृ ७२। जो मनुष्य पूर्व आयु में पाप करके पीछे से गंगा का सेवन करते, वे भी परमगति पाते हैं. (महाभारत अनु २६/३०)। जैसे गरुण के देखते ही साँप विषरहित हो जाते हैं , वैसे ही गंगा के देखते ही मनुष्य सब पापों से छुट जाते हैं (वही ४४)
इस प्रकार अनेक प्रमाण महाभारत ,पुराण आदि ग्रंथों में मिलते हैं जिनमे विभिन्न स्थानों में गंगा आदि में स्नान को तीर्थ कहाँ गया हैं .
वास्तविक तीर्थ क्या है –स्वामी दयानंद सत्यार्थ प्रकाश के ११ वें समुल्लास में तीर्थ की परिभाषा विस्तार से की है। जैसे-
१ वेदादि सत्य शास्त्रों का पढना- पढाना, धार्मिक विद्वानों का संग, परोपकार धर्म अनुष्ठान योगाभ्यास, निर्वैर निष्कपट, सत्य भाषण सत्य का मानना, सत्य करना, ब्रहमचर्य, आचार्य अतिथि माता-पिता की सेवा, परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना, शांति जितेन्द्रियता, सुशीलता, धर्मयुक्त पुरुषार्थ, ज्ञान-विज्ञान आदि शुभ गुण-कर्म दुखों से तारने वाले होने से तीर्थ हैं.अर्थात जितने भी संसार में श्रेष्ठ कर्म हैं उनको करने से मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति होती हैं और मनुष्य पुण्य का भागी बनकर सुख की प्राप्ति करता हैं इसलिए उन कर्मों को तीर्थ की संज्ञा दी गयी हैं.
२ मनुस्मृति ५/१०९ में मनु महाराज कहते हैं की जल से शरीर शुद्ध होता हैं, मन और आत्मा नहीं. मन तो सत्याचरण- सत्य मानने, सत्य बोलते सत्य ही करने से पवित्र होता हैं, जीवात्मा विद्या, योगाभ्यास और धर्माचरण से पवित्र होता हैं और बुद्धि पृथ्वी से लेकर परमेश्वर पर्यंत पदार्थों के ज्ञान से पवित्र होती हैं.
3 ‘तीर्थ’ जिस से दुःखसागर से पार उतरें कि जो सत्यभाषण, विद्या, सत्संग, यमादि, योगाभ्यास, पुरुषार्थ, विद्यादानादि शुभ कर्म है उसी को तीर्थ समझता हूँ; इतर जलस्थलादि को नहीं । (स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश)
4 ‘तीर्थ’ शब्द का अर्थ अन्यथा जान के अज्ञानियों ने जगत् के लूटने और अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए मिथ्याचार कर रक्खा है । सो ठीक नहीं, क्योंकि जो-जो सत्य तीर्थ हैं, वे सब नीचे लिखे जाते हैं – देखो ‘तीर्थ’ नाम उनका है कि जिनसे जीव दुःखरूप समुद्र को तरके सुख को प्राप्त हों । अर्थात् जो-जो वेदादिशास्त्र प्रतिपादित तीर्थ हैं, तथा जिन का आर्यों ने अनुष्ठान किया है, जो कि जीवों को दुःखों से छुड़ा के उनके सुखों के साधन हैं, उन्हीं को ‘तीर्थ’ कहते हैं । (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ग्रन्थ प्रामाण्याप्रामाण्य विषय)
और भी ध्यान देइ : -मन से प्रकाशित ब्रहम ज्ञान रूप जल से जो मन के तीर्थ में स्नान करता हैं, तत्व दर्शियों का वही स्नान हैं. घर में या जंगल में जहाँ भी ज्ञानी लोग रहते हैं उसी का नाम नगर हैं, उसी को तीर्थ कहते हैं. हे भारत आत्मा नदी हैं, यही पवित्र तीर्थ हैं. इसमें सत्य का जल , धैर्य के किनारे तथा दया की लहरें हैं. इसमें स्नान करनेवाला पुण्यात्मा पवित्र हो जाता हैं.
‘तीर्थ’ नाम उनका है की जिनसे जीव दुःखरूप समुद्र को तरके सुख को प्राप्त हों l अर्थात जो जो वेदादिशारूप प्रतिपादित तीर्थ हैं तथा जिनका आर्यों ने अनुष्ठान किया है, जो कि जीवों को दुःखों से छुड़ा के उनके सुखों के साधन हैं, उन्ही को ‘तीर्थ’ कहते हैं l
वेदोक्त तीर्थ ये हैं -(तीर्थमेव प्राय) अग्निहोत्र से लेके अश्वमेघपर्यन्त किसी यज्ञ की समाप्ति करके जो स्नान किया जाता है, उसको ‘तीर्थ’ कहते हैं l क्योंकि उस कर्म से वायु और वृष्टिजल की शुद्धिद्वारा सब मनुष्यों को सुख प्राप्त होता है इस कारण उन कर्मों के करनेवाले मनुष्यों को भी सुख और शुद्धि प्राप्त होती है l

२ मोक्ष्य क्या है और कैसे प्राप्त हो सकता है ?–

१ मोक्ष्य के लिए कर्म करने पड़ेंगे – जो लोग गंगा स्नान ,पुष्कर में स्नान ,गया में पिंड दान अथवा गंगा गंगा बोलने से मुक्ति को मानते हैं उनसे से कई गंगा किनारे स्थित नगरों में रहते हैं जो अगर गंगा स्नान से, गंगा दर्शन से, गंगा के स्मरण से उनकी सभी पापों से निवृति हो जाती तो उनके किसी भी प्रकार का दुःख नहीं होना चाहिए था पर देखने में वे उसी प्रकार समान रूप से दुखी हैं जैसे और संसार के और लोग अपने पापकर्मों से दुखी हैं. इससे यह सिद्ध होता हैं की गंगा आदि के स्नान से किसी भी मनुष्य के पाप से बिना भोगे मुक्त नहीं हो सकते.यह निश्चित हैं की कर्म का फल भोगे बिना उससे कोई भी छुट नहीं सकता।
अनेक धार्मिक पुस्तकों में कर्म फल सिद्धांत के अनेक प्रमाण हैं जैसे —
शुभ हो या अशुभ , किये हुए कर्म का फल भोगना ही पड़ता हैं.करोड़ों कल्प बीत जाने पर भी बिना भोगे उसका क्षय नहीं होता. (ब्रहमवैवर्त पुराण प्रकृति अ ३७)
जब ब्रह्मा का दिन समाप्त होने पर सृष्टि की प्रलय होती हैं, तो अभुक्त कर्म बीजरूप में बने रहते हैं, जब फिर नए सिरे से सृष्टी रचना होती हैं तो उसी कर्म बीज से अंकुर फूटने लगते हैं. पूर्व सृष्टि में जिस जिस प्राणी ने जो जो कर्म किये होंगे, फिर वे ही कर्म उसे बार बार प्राप्त होते रहेंगे (देवी भागवत पुराण)
जैसे बछड़ा हजारों गौयों के बीच अपनी माँ को ढूद लेता हैं, वैसे ही किया हुआ कर्म अपने करनेवाले को जा पकड़ता हैं. (महाभारत शांतिपर्व १५-१६)
यजुर्वेद ४०/१४ में वेद भगवान कहते हैं अविद्या अर्थात कर्म उपासना से मृत्यु को तरके विद्या अर्थात यथार्थज्ञान से मनुष्य मोक्षलाभ करता हैं।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥ यजु० ४० । २
सौ वर्ष तक कर्म करता हुआ ही जीने की इच्छा करे, यही मार्ग है। अन्य मार्ग नहीं है। इस प्रकार मनुष्य को कर्म नहीं बाँधते हैं।
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्यु तीत्व विद्ययामृतमश्नुते ॥ यजु० ४० । १४
जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ ही साथ जानता है वह अविद्या, अर्थात् कर्मोपासना से मृत्यु को तर के विद्या, अर्थात् यथार्थ ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है।
इसलिए वेदों में वर्णित कर्म फल के अटूट सिद्धांत को मानते हुए पुराणों के उपरलिखित प्रमाण जिसमें केवल पुण्य कर्म से सुख प्राप्ति का होना बताया गया हैं सत्य हैं।

२ प्रश्न-मुक्ति के क्या साधन हैं ?
उत्तर -महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में मोक्ष प्रकरण में इस प्रकार लिखा है।
“पवित्र कर्म पवित्रोपासना और पवित्र ज्ञान ही से मुक्ति और अपवित्र मिथ्या भाषणादि कर्म, पाषाणमूर्यादि की उपासना और मिथ्या ज्ञान से बन्ध होता है। कोई भी मनुष्य क्षण मात्र भी कर्म उपासना और ज्ञान से रहित नहीं होता, इसलिए धर्मयुक्त सत्यभाषणादि कर्म करना और मिथ्याभाषणादि अधर्म छोड़ देना ही मुक्ति का साधन है।”
३ प्रश्न – जिनसे मनुष्य लोग तर जाते हैं, अर्थात जल और स्थान विशेष, वे क्या तीर्थ नहीं हो सकते हैं
उत्तर- नहीं, क्योंकि उनमे तैरने का सामर्थ्य ही नहीं और तीर्थ शब्द करणकारणयुक्त लिया जाता है l जो जल या स्थान विशेष अधिकरण वा कर्मकारक होते हैं, उनमे नाव आदि अथवा हाथ और पग से तैरते हैं l इससे जल वा स्थल तैरने वाले कभी नहीं हो सकते किसलिये कि जो जल में हाथ वा पग न चलावें वा नौका आदि पर न बैठें, तो कभी नहीं तैर सकते l इस युक्ति से गंगा, यमुना , समुद्र आदि तीर्थ सिद्ध नहीं हो सकते इस कारण से तीर्थ हैं , उन्हीं को मानना चाहिए, जल और स्थान विशेष को नहीं l
४ प्रश्न – (इमं मे गङ्गे) यह मंत्र गंगा आदि नदियों को तीर्थ विधान करने वाला है, फिर उनको तीर्थ क्यों नहीं मानते
उत्तर – हम लोग उनको नदी मानते हैं, और उनके जल मैं जो जो गुण हैं, उनको भी मानते हैं l परन्तु पाप छुड़ाना और दुखों से तारना, यह उनका सामर्थ्य नहीं, किन्तु यह सामर्थ्य तो केवल पूर्वोक्त तीर्थों मैं ही है l
इस मंत्र में गंगा आदि नाम इड़ा, पिंगला , सुशुम्सा , कूर्म और जाठराग्नि की नदियों के नाम हैं l उनमे योगाभ्यास से परमेश्वर की उपासना करने से मनुष्य लोग सब दुखों से तर जाते हैं l क्योंकि उपासना नाड़ियों ही के द्वारा धारण करनी होती है l इस हेतु से इस मंत्र मैं उनकी गणना की है l इसलिए उक्त नामों से नाड़ियों का ही ग्रहण करना योग्य है ल (सितासितेo) सित इड़ा और असित पिंगला, ये दोनों जहाँ मिली हैं, उसको ‘सुषुम्ना’ कहते हैं l उसमें योगाभ्यास से स्नान करके जीव शुद्ध हो जाते हैं l फिर शुद्धरूप परमेश्वर को प्राप्त होक सदा आनंद मैं रहते हैं l इसमें निरुक्तिकार का भी प्रमाण है कि- सित और असित शब्द शुक्ल और कृष्ण अर्थ के वाची हैं l इस अभिप्राय से विरुद्ध मिथ्या अर्थ करके लोगों ने नदी नदियों का अर्थ नाम से ग्रहण कर लिया है। शास्त्रों में लिखा है कि ईश्वर ही ब्रह्मा है, जो सृष्टि के रचयिता के रूप में जाना जाता है। यह एक प्रमुख धार्मिक अवधारणा है जो हिंदू धर्म में व्याप्त है।
५ प्रश्न : पूरी दुनिया में सिर्फ एक ही ब्रह्मा जी का मंदिर पुष्कर में है ?
उत्तर -पहले ये समझे ले की ब्रह्मा ईश्वर का ही एक नाम है।
(बृह बृहि वृद्धौ) इन धातुओं से ‘ब्रह्मा’ शब्द सिद्ध होता है। ‘योऽखिलं जगन्निर्माणेन बर्हति वर्द्धयति स ब्रह्मा’ जो सम्पूर्ण जगत् को रच के बढ़ाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘ब्रह्मा’ है।
इसलिए ये कहना की पुष्कर जी मंदिर ही ब्रह्मा की रचना है , गलत होगा। शास्त्रों में लिखा है कि ईश्वर ही ब्रह्मा है, जो सृष्टि को बनाने और उसकी देखभाल करने के लिए जाना जाता है। वही है जो सृष्टि को बनाने के लिए चतुर्थ रूप में उत्पन्न हुआ है, और वही है जो सृष्टि को बनाने और उसकी देखभाल करने के लिए जाना जाता है।
शास्त्रों में लिखा है कि ईश्वर ही ब्रह्मा है, जो सृष्टि के रचयिता के रूप में जाना जाता है। यह एक प्रमुख धार्मिक अवधारणा है जो हिंदू धर्म में व्याप्त है, और यह ईश्वर की शक्ति और सामर्थ्य को दर्शाता है ,जो सृष्टि को बनाने और उसकी देखभाल करने में सक्षम है।
पूरी दुनिया में अधिकांश शहर,नदियों,पहाड़ो के एक ही नाम है ताकि उनकी पहचान बानी रहे। पुष्कर के मंदिर का नाम ब्रह्मा जी का मंदिर है तो इसमें कोई नयी या आश्चर्य की बात नहीं।

पुष्कर में ब्रह्मा जी तालाब : कभी देखो की ये कितना गन्दा है जिसका पानी पीने लायक भी नहीं है। पण्डे लोग अपनी दूकान चला रहे है और कर्म से भागने वाले हिन्दू अपनी झूटी आत्म संतुष्टि करने वहा जाते है।
पूरी सृष्टि ही ईश्वर का श्रृंगार है –इसलिए मंदिर में राखी पाषाण की मूर्ति पैर फूल चढ़ाएं ,पत्ते चढ़ाना ,नहलाना आदि पाप नहीं तो पुण्य भी नहीं है , मूर्खता है। पर्यावरण की हानि है। श्रृष्टि ईश्वर का श्रंगार है,यह एक अद्भुत और विशाल रचना है। ईश्वर ने इस श्रृष्टि को अपनी बुद्धिमत्ता और शक्ति से बनाया है, और इसमें उसने अपना अद्भुत सौंदर्य और विविधता दिखाई है।श्रृष्टि में हर चीज़ अपने आप में अद्भुत है,चाहे वह सूरज, चंद्रमा, तारे, आकाश, पेड़-पौधे, जानवर, पक्षी, या मनुष्य हों। हर चीज़ में ईश्वर का हाथ है, और हर चीज़ में उसकी अद्भुत रचना दिखाई देती है।श्रृष्टि में विविधता का अद्भुत सौंदर्य है, जहां हर चीज़ अपने आप में अनोखी है। यहां की रंगीन प्रकृति, यहां के अद्भुत परिदृश्य, यहां के विविध जीवन, और यहां के अद्भुत घटनाएं सभी ईश्वर की अद्भुत रचना को दर्शाते हैं।
श्रृष्टि में नियम और संरचना भी है, जो ईश्वर की बुद्धिमत्ता और शक्ति को दर्शाती है। यहां की गुरुत्वाकर्षण, यहां के तारे और ग्रह, यहां के पेड़-पौधे और जानवर, और यहां के सभी घटनाएं एक संरचना और नियम के अंतर्गत हैं।श्रृष्टि में जीवन का अद्भुत सौंदर्य भी है, जहां हर जीव अपने आप में अद्भुत है। यहां के जानवर, पक्षी, और मनुष्य सभी अपने आप में अनोखे हैं, और सभी में ईश्वर का हाथ है।
मुक्ति कैसे मिले और कैसी होती है ?
न्याय दर्शन में पांच प्रकार के क्लेश बताए गए हैं; अविध्या,अस्मिता,राग,द्वेष,और पांचवा अभिनिवेश यानि ये इच्छा की सदैव शरीर के साथ बने रहे ,मृत्य ना हो।शास्त्रों में लिखा है कि जब अविध्यादि क्लेश दूर होके विद्यादि शुभ गुण प्राप्त होते है,तब जीव सब बंधनों और दुखो से छूट के मुक्ति को प्राप्त हो जाता है।जब सब दोषों से अलग होकर ज्ञान की ओर आत्मा झुकता है,तब केवल्य मोक्ष धर्म के संस्कार से चित्त परिपूर्ण हो जाता है,तभी जीव को मोक्ष प्राप्त होता है,तब केवल्य मोक्ष धर्म के संस्कार से चित्त परिपूर्ण हो जाता है,तभी जीव को मोक्ष प्राप्त होता हैं।जब तक जीव बंधन के कामों में फसता जाता है,तब तक उसको मुक्ति प्राप्त होना असम्भव है।
केवल्य मोक्ष का लक्षण यह है कि पुरुषार्थ के द्वारा जो सत्व, रजो,और तमोगुण और उनके सब कार्य पुरुषार्थ से नष्ट होकर, आत्मा में विज्ञान और शुद्धि यथावत होके ,स्वरूपप्रतिष्ठा,जैसा जीव का तत्व है ,वैसा ही स्वावभिक शक्ति और गुणों से युक्त होके ,शुधस्वरूप परमेश्वर के स्वरूप विज्ञान प्रकाश और नित्य आनंद में जो रहता है,उसी को केवल्यमोक्ष कहते है।
मुक्ति के विषय में उपनिषद में कहा है ;-जब मन के सहित पांच ज्ञानेंद्रिया परमेश्वर में स्थिर होके उसी में सदा रमण करती है,और जब बुद्धि भी ज्ञान की चेष्ठा नही करती ,उसी को परमगति अर्थात मोक्ष कहते है।अर्थात जब मनुष्य का हृदय सब बुरे कामों से अलग होकर शुद्ध हो जाता है,तभी वह अमृत अर्थात मोक्ष को प्राप्त होके आनंदयुक्त होता है।

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