डॉ डी के गर्ग
वशिष्ठ एक नहीं अनेको है :-पौराणिक ग्रंथो में और उपलब्ध साहित्य के अनुसार वशिष्ठ एक नहीं अनेको है। एक वशिष्ठ ब्रह्मा के पुत्र हैं, दूसरे इक्क्षवाकुवंशी त्रिशुंकी के काल में हुए जिन्हें वशिष्ठ देवराज कहते थे। तीसरे कार्तवीर्य सहस्रबाहु के समय में हुए जिन्हें वशिष्ठ अपव कहते थे। चौथे अयोध्या के राजा बाहु के समय में हुए जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम) कहा जाता था। पांचवें राजा सौदास के समय में हुए थे जिनका नाम वशिष्ठ श्रेष्ठभाज था। कहते हैं कि सौदास ही सौदास ही आगे जाकर राजा कल्माषपाद कहलाए। छठे वशिष्ठ राजा दिलीप के समय हुए जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय) कहा जाता था। इसके बाद सातवें भगवान राम के समय में हुए जिन्हें महर्षि वशिष्ठ कहते थे और आठवें महाभारत के काल में हुए जिनके पुत्र का नाम पराशर था। इनके अलावा वशिष्ठ मैत्रावरुण, वशिष्ठ शक्ति, वशिष्ठ सुवर्चस जैसे दूसरे वशिष्ठों का भी जिक्र आता है। फिर भी उक्त सभी पर शोध किए जाने की आवश्यकता है।
वशिष्ठ भी एक पद हुआ करता था-
वशिष्ठ नामक पदवी त्रेता काल में राज पुरोहितों को विद्वत्ता के आधार पर दी जाती थी और धार्मिक विषयों पर वशिष्ठ मुनि का कथन स्वीकार्य होता था।इनका उल्लेख हमें सत्युग से लेकर त्रेतायुग द्वापर युग तक मिलता है।ऐसा ऋषि जिसका संयमित, नियमित जीवन हो व ब्रह्म को जिसने अपने जीवन में समाहित कर लिया हो तो ऐसे ऋषि को राजपुराहित नियुक्त करते थे और जो ईश्वरीय भय तथा सामाजिक भय दोनों को अपनी साधना से जीत लेता था। ऐसे ब्रहावेत्ता बनने वाले पुरूष को वशिष्ठ चुना जाता था। अतः जो भी ऋषि-मुनि इन गुणों से आपूर होता था, उसे राजा राजपुरोहित नियुक्त करते थे और रामचन्द्र जी महाराज के गुरु भी वशिष्ठ मुनि इसी परम्परागत पद्धति में थे।
वशिष्ठ मुनि ने अपने मधुर प्रयास से चारो तरफ फैले हुए विभिन्न जाति-समुदाय को एकत्रित किया और एक सूत्र में पिरोया।रामायण काल में तो इस आर्यावर्त देश में वैदिक व्यवस्थाएं थी। राजा दशरथ जी के राज्य की व्यवस्था को हम सबने पढ़ा है। रामायण के छठे सर्ग के श्लोक 12 में लिखा है कि अयोध्या में कोई भी ऐसा नहीं था। जो अग्निहोत्र न करता हो। श्लोक 15 में लिखा है कि अयोध्या पुरी में वेद के छहों अंगों को न जानने वाला व्रतहीन कोई नहीं था। साफ-साफ लिखा है कि वेद और वेदांग के व्रत से विपरीत कोई काम होता ही नहीं था, जब उस समय वैदिक व्यवस्था थी।
वशिष्ठ जन्म कथा :- महर्षि वशिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों की नाना कथाओं में अनेक रूपों में उपलब्ध है।
१ वशिष्ठ मुनि जी की गाय के हुंकार से कंबोज योनि देश से यवन गोबर वाले स्थान से शक रोम कूपों से म्लेच्छ हारीत और किरात प्रकट हुए?
विश्लेषण:-इस वाक्य में भी अलंकारिक भाषा का प्रयोग हुआ है जिसका भावार्थ समझने की जरुरत है। गाय के हुंकार का अर्थ है कि मुनि द्वारा दिए गए उपदेश और आदेश जिसके पालन करने पर कोई प्रश्न न करे और जो सभी के लिए गौ माता की पवित्र आवाज की भांति स्वीकार्य हो।
२ अन्य कथाये :
वृहदेवता (। १४९-१५२( मे कथा – अदिति के १२ पुत्रो में से दो आदित्यों ( मित्र और वरुण ) ने जब उर्वशी को एक यज्ञ सत्र मे देखा तब उनका वीर्य स्कन्दित हो गया और वह जल से भरे कुम्भ में गिर पड़ा, जो रात भर वहां पड़ा रहा।उसी क्षण वहाँ दो वीर्यवान , तपस्वी ऋषि अगत्स्य और वसिष्ठ उत्पन्न हो गए । अतः यह वीर्य विविध रूपों से कुम्भ, जल और स्थल पर गिरा था , अतः ऋषि -श्रेष्ठ मुनि वसिष्ठ स्थल पर उत्पन्न हुए , जबकि अगस्त्य कुम्भ मे और महाधुतिमान मत्स्य जल में उत्पन्न हुए ।
२ भविष्य पुराण में तो यहां तक लिखा हुआ है कि – वशिष्ट नमक महामुनि वेश्या के गर्भ से उत्पन्न हुआ था । वह अपने कर्म से ब्राह्मण बन गया, इसमें उसके संस्कार ही कारण थे ।
इस प्रकार के विकृत और घिनावने अनर्थों का कारण यह है , कि ये लौकिक लेखक प्रचीन निरुत्तादि ग्रंथों का आधार न लेते हुए वेद के मन्त्रों में आये शब्दों का रूढ़ अर्थ ही लेने लगे थे । इस लिए वे वेद के वास्तविक रहस्य को न जान सके ।
विश्लेषण : ऋग्वेद की इन दो ऋचाओं में मित्र और वरुण द्वारा वसिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन आया है।वास्तविक आधिदैविक पक्ष को न समझकर वृहदेवता तथ पुराणों में इस कथा को अत्यंत ही वीभत्स और विकृत रूप मे इस कथा को अत्यंत ही वीभत्स और विकृत रूप मे प्रस्तुत किया गया है ।
उ॒तासि॑ मैत्रावरु॒णो व॑सिष्ठो॒र्वश्या॑ ब्रह्म॒न्मन॒सोऽधि॑ जा॒तः। द्र॒प्सं स्क॒न्नं ब्रह्म॑णा॒ दैव्ये॑न॒ विश्वे॑ दे॒वाः पुष्क॑रे त्वाददन्त ॥ऋग्वेद ७/३३
हे (ब्रह्मन्) समस्त वेदों को जाननेवाले (वसिष्ठ) पूर्ण विद्वन् ! जो (मैत्रावरुणः) प्राण और उदान के वेत्ता आप (उर्वश्याः) विशेष विद्या से (उत) और (मनसः) मन से (अधि, जातः) अधिकतर उत्पन्न (असि) हुए हो उन (त्वा) आपको (विश्वे) समस्त (देवाः) विद्वान् जन (ब्रह्मणा) बहुत धन से और (दैव्येन) विद्वानों ने किये हुए व्यवहार से (पुष्करे) अन्तरिक्ष में (स्कन्नम्) प्राप्त (द्रप्सम्) मनोहर पदार्थ को (अददन्त) देवें
भावार्थ निम्नलिखित है-
शतपथ ब्राह्मण ( १। । ३,१२) में मित्रावरुणौ को प्राण और उदान वायु कहा है , प्रणोदानी वै मित्रावरुणौ '। मित्र
प्राण ‘ नामक वायु (गैस )है ‘ और वरुण उदान ' वायु है ।ये दोनों वायुएँ उर्वशी अथार्त विद्युत से संयुक्त होती है तो वसिष्ठ यथार्थ
जल ‘ की उत्पत्ति होती है ।
वर्तमान काल के वैज्ञानिकों ने भी ऑक्सीज़न तथा hydrozen उद्जन के विद्युत (एलेक्ट्रोल्य्सुस) द्वारा सम्मिलन होने से जल कि उत्पत्ति सिद्ध की है ।
उर्वशी- उर्वशी विद्युत है , इसके लिए देखो निरुक्त (५। १३) उर्वभयुश्रुते अर्थात दूर तक पहुंच जाती है । निरुक्त के टीकाकार स्कन्द स्वामी तथा दुर्गाचार्य दोनों ने उर्वशी विद्युत् ' ऐसा अर्थ किया है । इसी प्रकरण में उर्वशी को
अप्सरा ‘ भी लिखा है , जिसका अर्थ है अप्सु सरतीत्यसारा:' आपों(जल ) मे विचरने वाली । इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि प्राण और उदान वायुओं का जब विद्युत से संपर्क होता है ' तब वसिष्ठ (जल) कि उत्पति होती है । स्कन्द स्वामी ने भी वसिष्ठ का अर्थ
उदक संघात: अर्थात `जल समूह ‘ किया है ।
वशिष्ठ ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए : जैस की पहले लिखा जा चुका है कि गुरु वशिष्ठ एक नहीं अनेको हुए है ,ये एक पदवी है। सप्त ऋषियों में एक नाम ऋषि वशिष्ठ का भी है। इसका कारण है ऋषि वशिष्ठ एक विद्वान थे जो वेद मंत्रो के द्रष्टा के रूप में जाने जाते है। वेद ईश्वर (ब्रह्मा ) की वाणी है और वेद की ऋचाओं का गायन करने वाले द्रष्टा ऋषि के लिए ये अलंकार की भाषा में कहा गया है की ये ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए।
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