मनोज ज्वाला
भारतीय संविधान से धारा तीन सौ सत्तर को निरस्त करते हुए जम्मू-कश्मीर राज्य का पुनर्गठन कर उसे केन्द्र-शासित बना दिए जाने के बाद वहां हो रहे विधानसभा-चुनाव में जब कांग्रेस एवं नेशनल कांफ्रेंस की ओर से अपने अपने चेहरे धोए -चमकाए जा रहे हैं , तब ऐसे में भाजपा को चाहिए कि वह कुख्यात ‘मादरे मेहरबान’ मामले को उठा कर उन्हें बेनकाब कर डाले । यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि देश को मूर्ख बनाते रहे धूर्त्त राजनीतिबाजों के काले कारनामों पर से पर्दा उठ सके और उन्हें अंजाम देने वाले खलनायकों व दोषियों की विरासत पर सियासत की रोटी सेंक रहे उनके कांग्रेसी-कांफ्रेंसी वारिसों को आईना दिखाया जा सके ।
यह सत्य तो सारी दुनिया जाना चुकी है कि कश्मीर-समस्या भारत के कांग्रेसी प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु की शेख अब्दुल्ला से दोस्ती और महाराजा-कश्मीर से खुन्नस की देन है , किन्तु यह तथ्य कदाचित कम ही लोग जानते हैं कि जिस अब्दुल्ला साहब को नेहरु जी ने कश्मीर की सत्ता का सर्वेसर्वा बना रखा था, वो समस्त जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग कर देने के एक भीषण राष्ट्रघाती षड्यंत्र-मामले में जेल के भीतर डाल दिए जाने के साथ-साथ जांचोपरांत आरोपित भी हो चुके थे , जिन्हें तब की कांग्रेसी केन्द्र सरकार ने अदालती सजा मुकर्रर होने से पहले ही रिहा करा कर प्रधानमंत्री-आवास में मेहमान बना रखा था । सरकारी दस्तावेजों में यह मामला ‘कश्मीर षड्यंत्र केस’ के नाम से दर्ज है, जिसे अब्दुल्ला साहब ने ‘मादरे-मेहरबान’ के छद्म नाम से अंजाम दिया था । आज कश्मीर-समस्या सम्बन्धी भाजपाई केन्द्र-सरकार की राष्ट्रवादी कार्रवाइयों पर कांग्रेसी नेताओं-सांसदों और अब्दुल्ला- खानदान के रहनुमाओं द्वारा विधायी चुनाव में जब तरह-तरह के बेतुके सवाल खडे किये जाने लगे हैं , तब उस ‘मादरे मेहरबान’ प्रकरण से देशवासियों को अवगत करा देना आवश्यक प्रतीत हो रहा है ।
मालूम हो कि नेहरु जी की कृपा से जम्मू-कश्मीर की सत्ता का सर्वेसर्वा बन वहां के जनमत को अपने पक्ष में करने के बावत धारा-३७० नामक हथियार पा कर शेख अब्दुल्ला साहब उस पूरे सूबे को न केवल इस्लामी रंग में रंगने लगे थे और भारत के प्रति निष्ठावान जनता पर कहर ढाते हुए अमेरिका-ब्रिटेन के साथ-साथ अल्जीरिया-मोरक्को आदि इस्लामिक देशों के हुक्मरानों से गुप्त सम्बन्ध कायम कर उसे भारत से अलग संप्रभु राज्य बना डालने तथा स्वयं उसका स्वतंत्र सुल्तान बन जाने का षड्यंत्र भी रचने लगे थे । किन्तु, उन्हीं की पार्टी के एक मंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद और भारतीय खुफिया एजेन्सियों के माध्यम से उसकी तमाम सूचनायें तत्कालीन केन्द्रीय गूह मंत्री कैलाशनाथ काट्जु एवं भारतीय गुप्तचर सेवा के निदेशक जी०के० हाण्डु को मिलती रही थीं । उन तमाम गुप्त पत्राचारों-दस्तावेजों के आधार पर केन्द्रीय मंत्रिमण्डल द्वारा नेहरु जी पर इतना दबाव पडा था कि वे अब्दुल्ला को गिरफ्तार होने से तत्काल बचा नहीं सके । फलतः०९ अगस्त १९५३ को केन्द्र सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर के ‘वजीर-ए-आजम’ (‘प्रधान मंत्री’) कहे जाने वाले शेख अब्दुल्ला की हुकुमत को वर्खाश्त कर बख्शी गुलाम मोहम्मद के हाथों सत्ता सौंप दी गई थी । बख्शी मोहम्मद वास्तव में भारत के प्रति वफादार थे, जिन्होंने जम्मू-कश्मीर में आम भारतीयों के प्रवेश विषयक ‘परमीट’ की अनिवार्यता समाप्त करने सहित वजीर-ए-आजम व सदर-ए-रियासत के पद भी हटा कर उनके बदले क्रमशः मुख्य मंत्री व राज्यपाल के पद का विधान कायम करते हुए समूचे प्रदेश को भारतीय रंग में रंगने का
काम किया था ।
उधर उधमपुर जेल में बन्द शेख अब्दुल्ला ने अपनी बेगम के माध्यम से विभिन्न मुल्लाओं-मौलवियों, नेशनल कांफ्रेन्स के नेताओं-कार्यकर्ताओं तथा कतिपय कश्मीरी सरकारी मुलाजिमों और पाकिस्तानी सेना-पुलिस-गुप्तचर अधिकारियों के बीच गुप्त सम्बन्ध-समन्वय स्थापित कर ‘वार काउंसिल’ नामक एक भूमिगत संगठन कायम कर लिया था । इतना ही नहीं, अपनी बेगम को जेल में अपने साथ रख उक्त षड्यंत्र के क्रियान्वयन का प्रशिक्षण दे कर उसे ‘मादरे मेहरबान’ नाम प्रदान कर उक्त ‘वार काउंसिल’ का संयोजक बना रखा था । फिर तो ‘मादरे मेहरबान’ को जम्मू-कश्मीर में साम्प्रदायिक दुष्प्रचार, हिंसा, आतंक, तोड-फोड , बम-विस्फोट आदि मजहबी उन्माद फैलाने व भारत-विरोधी विघटनकारी वातावरण बनाने के लिए पाकिस्तानी सेना से बाकायदा धन मिलने लगा था । तीन चार वर्षों के अन्दर षड्यंत्र के सारे तंत्र तैयार हो जाने के बाद १३ जुन १९५७ से उक्त ‘वार काउंसिल’ का छद्म-युद्ध समस्त जम्मू-कश्मीर भर में मन्दिरों-गुरुद्वारों, मस्जीदों , सिनामाघरों, बस पडाओं , पुल-पुलियाओं आदि को बम-विस्फोटों से उडाने के रुप में शुरु हो गए थे । शेख साहब को जब यह यकिन हो गया कि सुबे के हालात बिगडते ही सत्ता उन्हें वैसे ही सौंप दी जाएगी, जैसे सन १९४७ में सौंप दी गई थी, तो वे जेल से बाहर निकलने की जुग्गत भिडाने लगे ।
इधर नेहरुजी को भी कदाचित यह स्वीकार नहीं था कि उनका दोस्त अब्दुल्ला जेल में रहे, सो वे मुख्यमंत्री मोहम्मद पर दबाव डाल कर अब्दुल्ला को रिहा करवा दिए । मगर बख्शी साहब की भारत-भक्ति बेमिशाल थी । उन्होंने जेल से बाहर हुए शेख अब्दुल्ला के इर्द-गिर्द खुफिया जाल बिछा दिया । छद्मवेशी खुफिया अधिकारी अपनी-अपनी जेबों में ‘टेपरिकॉर्डर’ लिए रहते थे और अब्दुल्ला की हर गतिविधियों, बैठकों, सभाओं में हिस्सा लिया करते थे । मात्र चार महीने के भीतर ही शेख अब्दुल्ला के तमाम सियासी हरकतों, एवं भारत-विरोधी षड्यंत्रकारी गतिविधियों के सैकडों ठोस प्रमाण जब पुनः एकत्रित हो गए , तब मोहम्मद साहब नेहरुजी से पुछे बिना अब्दुल्ला
महोदय को गिरफ्तार करा कर पुनः जेल में डलवा देने के बाद उनकी समस्त कारगुजारियों के वे सारे प्रमाण भारत सरकार को भेज दिए । उन प्रमाणों को देख-सुन कर जवाहरलाल नेहरु ऐसे विवश हो गए कि उन्हें अब्दुल्ला पर दुबारा मुकदमा चलाने की अनुमति झख मार कर देनी ही पडी । फलतः २१ मई १९५८ को शेख अब्दुल्ला और मिर्जा अफजल बेग सहित २२ अन्य लोगों के खिलाफ आई०सी०पी०सी० की धारा ३२-३३ के तहत देश-द्रोह के साथ-साथ हिंसा आतंक विद्रोह आदि अनेक संगीन मामलों का एक मुकदमा दर्ज किया गया , जिसे ‘कश्मीर षड्यंत्र केस’ कहा जाता है । वह केस दरअसल यही था कि स्वतंतंत्र कश्मीर का सुल्तान बनने की फिराक में विदेशी शक्तियों से मिल कर साजिश रचने के कारण सत्ता गंवा कर जेल की सलाखों के भीतर जा चुके अब्दुल्ला साहब को उनके प्रतिद्वंदी बख्शी मोहम्मद की हुकुमत रास नहीं आ रही थी , जिसे वे सांवैधानिक तरीके से चुनौती दे नहीं सकते थे , जबकि वे सुबे की सत्ता पर हर-हाल में काबीज रहना चाहते थे ताकि अपनी ‘सुल्तानी योजना’ को साकार कर सकें ; इसलिए वे जेल के भीतर से ही मोहम्मद-सरकार को उखाड फेंकने और जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान में मिला देने अथवा भारत के नियंत्रण से बाहर स्वतंत्र राज्य बना देने का षड्यंत्र रचे हुए थे, जिसका संचालन उनकी बेगम ‘मादरे मेहरबान’ के छद्म नाम से किया करती थी. ।
मेरी एक पुस्तक- ‘सफेद आतंक – ह्यूम से माईनों तक’ में प्रामाणिक तथ्यों के हवाले से उक्त ‘कश्मीर षड्यंत्र केस’ का विस्तार से
वर्णन है, जिसके अनुसार शेख अब्दुल्ला और उनके साथियों के विरुद्ध एक सौ से भी अधिक गवाहों की गवाहियां दर्ज हुई थीं, और सभी के खिलफ देश-द्रोह के आरोप सिद्ध हो जाने के बाद ‘लोवर कोर्ट’ ने अग्रेतर कार्रवाई के बावत ‘सेसन कोर्ट’ को वह मामला सुपुर्द कर दिया था । लगभग छह साल चले उस मुकदमें का फैसला आने ही वाला था, जिसे सुनने के लिए सारा देश व्यग्र था कि तभी एक दिन प्रधानमंत्री नेहरु के अदेश पर अब्दुल्ला सहित उसके सभी साथियों के विरुद्ध सिद्ध हो चुके उस पूरे मुकदमें को ही वापस ले लिया गया । फलतः ०८ अप्रेल १९६४ को फिर जेल से रिहा कर दिए गए अब्दुल्ला, जो कई दिनों तक प्रधानमंत्री आवास के मेहमान बने रहे और नेहरु जी उस
देश-द्रोह के मुकदमें के बावत अपनी मजबुरियां बताते हुए खेद जताते रहे ।
अब जम्मू-कश्मीर से धारा ३७० हटा दिए जाने के बाद वहां हो रहे विधायी चुनाव में नेहरु-अब्दुल्ला की दुहाई देने वाले कांग्रेसी नेताओं और पृथकतावादी आतंकवाद पर सफाई पेश करने वाले नेशनल कांफ्रेन्सी फारुक-उमर अब्दुल्लाओं को उस ‘मादरे मेहरबान’ के आईने में अपना-अपना चेहरा देखना चाहिए । किन्तु जाहिर है, वे ऐसा नहीं करेंगे । अतएव मोदी-सरकार को और भाजपा नेताओं को ही चाहिए कि वे धारा ३७० के अवसान पर मातम जताते हुए अपनी छाती पीटने वाले कांग्रेसियों-कम्युनिष्टों व उनके सिपहसालार बुद्धिबाजों को वह ऐतिहासिक आईना दिखा दें और उस मादरे-मेहरबानमामले को संज्ञान में ले कर उसके बचे-खुचे अभियुक्तों को न्यायिक ठिकानों
की सैर भी करा दें ।