◼️स्वामी दयानन्द सरस्वती को वेदविषयक ज्ञान कैसे हुआ ?◼️

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✍🏻 लेखक – महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी
प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

  स्वामी दयानन्द सरस्वती के समय वेदविषयक प्रचलित मान्यता के परिप्रेक्ष्य में यह जानना आवश्यक है कि उन्होंने वेदों का जो स्वरूप जनता एवं विद्वानों के समक्ष उपस्थापित किया, उसका परिज्ञान उन्हें कहाँ से और कैसे प्राप्त हुआ ? बाल्यावस्था में उन्होंने घर में केवल शुक्लयजुर्वेद की माध्यन्दिनसंहिता कण्ठस्थ की थी। यह बात उन्होंने स्वयं लिखित एवं कथित आत्मवृत्त में कही है। इससे अन्यत्र गृह-परित्याग के पश्चात् भी एक-दो स्थानों पर वेद पढ़ने का संकेत किया है, परन्तु उससे हम किसी विशेष परिणाम पर नहीं पहुंच सकते।

  गुरुवर स्वामी विरजानन्द सरस्वती से उन्होंने केवल पाणिनीय व्याकरण शास्त्र का ही अध्ययन किया था। इससे अधिक उनके जीवन चरितों से कुछ नहीं जाना जाता। श्री स्वामी विरजानन्द सरस्वती की प्रसिद्धि भी केवल वैयाकरण रूप में ही थी। हाँ, उन्हें जीवन के अन्तिम भाग में आर्षग्रन्थों और अनार्ष ग्रन्थों के मौलिक भेद का परिज्ञान हो गया था। इसलिये उन्होंने सिद्धान्तकौमुदी शेखर मनोरमा आदि का पठन-पाठन बन्द करके अष्टाध्यायी महाभाष्य का पठन-पाठन आरम्भ कर दिया था। इसी काल में स्वामी दयानन्द सरस्वती अध्ययन के लिये उनके चरणों में उपस्थित हुए थे और गुरुमुख से महाभाष्यान्त पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन किया था। इसलिये स्वामी दयानन्द सरस्वती के हृदय में आर्षग्रन्थों के प्रति जो असीम श्रद्धा और मानुषग्रन्थों के प्रति जो प्रतिक्रिया देखने में आती है, उसका उत्स स्वामी विरजानन्द सरस्वती की शिक्षा में ही मूलरूप से निहित है, परन्तु इसके विशदीकरण में स्वामी दयानन्द सरस्वती का अपना प्रमुख योगदान रहा है। उन्होंने अपने जीवन में सहस्रों ग्रन्थों का अध्ययन मनन और परीक्षण के अनन्तर भ्रमोच्छेदन में लिखा है कि मैं लगभग तीन सहस्र ग्रन्थों को प्रामाणिक मानता हूँ।

  यह सब कुछ होने पर भी स्वामी दयानन्द सरस्वती को वेद के उस स्वरूप का परिज्ञान कहाँ से हुआ, जिसे वे ताल ठोककर सबके सम्मुख उपस्थापित करते थे, यह जिज्ञासा का विषय बना ही रहता है।

  मैं इस गुत्थी को सुलझाने के लिये वर्षों से प्रयत्नशील रहा हूं, क्योंकि मेरी दृष्टि में स्वामी दयानन्द सरस्वती की देश जाति और समाज को उक्त वेद-विषयक देन सर्वोपरि है और इसी में निहित है उनके वेदोद्धार के कार्य की महत्ता एवं विलक्षणता ।

  मैं अपने अल्पज्ञान एवं अल्प स्वाध्याय से इस विषय में इतना तो अवश्य समझ पाया है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जब विशाल संस्कृत वाङ्मय का आलोडन किया, तब उन्हें यह तत्त्व तो अवश्य ज्ञात हो गया होगा कि संस्कृत वाङ्मय के विविध विद्याओं के आकर ग्रन्थ स्व-स्वविद्या का उद्गम वेद से ही वणित करते हैं।[१] अतः वेद में उन समस्त विद्याओं का मूलरूप से वर्णन होना ही चाहिये। स्वायम्भुव मनुप्रोक्त आद्य समाजशास्त्ररूप मनुस्मृति में समस्त मानव समाज के वेदो दित कर्तव्याकर्तव्य का विधान किया है और भूतभव्य तथा वर्तमान में उत्पन्न हुई या उत्पन्न होनेवाली समस्त समस्याओं का समाधान वेद ही कर सकता है,[🔥भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात् प्रसिद्ध्यति। मनु० १२।१७ तथा इसी अध्याय के श्लोक ९४, ९९, १००] ऐसा उल्लेख मिलता है। इससे सम्पूर्ण मनुष्यव्यवहारोपयोगी कार्यों की समस्त समस्याओं का समाधान वेद कर सकता है, का बोध भी हो गया होगा, परन्तु शब्दप्रमाण से विज्ञात वेद का स्वरूप वैसा ही है या नहीं, इसके निश्चय के लिये प्रमाणान्तर की अपेक्षा भी रहती ही है। इसका कारण यह है कि शास्त्रकारों का लेख वेद के प्रति अतिशय श्रद्धा के कारण अथवा स्वप्रतिपाद्य विषय की प्रामाणिकता दर्शाने के लिये भी हो सकता है। 

[📎पाद टिप्पणी १. द्र०- वैदिकसिद्धान्तमीमांसा में छपा 🔥’वेदानां महत्त्वं तत्प्रवारोपायाश्च’ संस्क० २ पृष्ठ १-१० (संस्कृत), पृष्ठ ३३-३७ (हिन्दी)।]

  अतः मेरी क्षुद्र बुद्धि में स्वामी दयानन्द सरस्वती को वेद का जो स्वरूप ज्ञात हुआ, उसका स्रोत कहीं बाहर नहीं, अपितु तत्स्थ ( =उनके भीतर) ही होना चाहिये। क्योंकि ऊपर जिन शास्त्रों के आधार पर वेद के विशिष्ट स्वरूप की कल्पना की जा सकती है, वे शास्त्र तो शङ्कराचार्य और भट्टकुमारिल के समय न केवल विद्यमान थे अपितु वर्तमान काल की अपेक्षा अधिक पढ़े-पढ़ाये जाते थे। स्वामी शङ्कराचार्य प्रस्थानत्रयी (वेदान्त-उपनिषद्-गीता) तक ही सीमित रह गये, उन्होंने वेद के सम्बन्ध में न कुछ लिखा और न कहीं विचार ही प्रस्तुत किया। भट्टकुमारिल वैदिक कर्मकाण्ड में ही यावज्जीवन उलझे रहे। 
  मैं इस विषय में जो समझ पाया हूं, वह इस प्रकार है -

  ◼️१. वेद के स्व शब्दों में 🔥उतो त्वस्मै तन्वं विसस्त्रे जायेव पत्य उशती सुवासा (ऋ० १०।७१।५) = कोई एक ऐसा वेदविद्या का अधिकारी पुरुष होता है, जिसके सम्मुख वेदवाक् स्वयं अपने स्वरूप को उसी प्रकार प्रकट कर देती है जैसे ऋतुकाल में पति की कामना करती हुई अच्छे वस्त्र पहने हुई पत्नी स्वपति के सम्मुख गोपनीयतम अङ्गों को भी उद्घाटित कर देती है। 

  ◼️२. जिस अधिकारी पुरुष के प्रति वेदवाक् स्वयं अपना स्वरूप उद्घाटित करती है, वह कौन हो सकता है ? इस विषय में शास्त्रकार कहते हैं -
  🔥न ह्येष प्रत्यक्षमस्त्यनृषेरतपसो वा। 
  अर्थात् वेद का प्रत्यक्ष उन्हीं को होता है, जो ऋषि और तपस्वी होते हैं।

  ◼️३. ऐसे ऋषिभूत एवं तपस्वी को वेद की प्राप्ति के लिये इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता। वेदवाक् स्वयं उस हृदय में उपस्थित होकर अपने रहस्यों को उद्घाटित कर देती है -

  🔥अजान्ह वै पृश्नींस्तपस्यमानान्ब्रह्म स्वयंभ्वभ्यानर्षत् त ऋषयोऽभवन्तदृषीणामूषित्वम्। 
  -तैत्तिरीय आरण्यक २।९ 

  🔥तद्यदेनांस्तपस्यमानान् ऋषीन् ब्रह्म स्वयमभ्यानर्षत्। 
  [त ऋषयोऽभवन्] तद् ऋषीणामृषित्वम्।[२] -निरुक्त २।११ 
  इसका भाव यह है कि जो ऋषिभूत व्यक्ति यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिये तपस्या करते हैं, उन्हें ब्रह्म ( =वेद) स्वयं प्राप्त होता है। यही ऋषियों का ऋषित्व है। 

[📎पाद टिप्पणी २. स्वामी दयानन्द को सर्वविध विपरीत परिस्थितियों में वेद के यथार्थ स्वरूप का बोध कैसे हुआ ? इस विषय में मेरे मन में वर्षों से शंका बनी हुई थी। गतमास (८-१७ अगस्त १९९०) नर्मदातीरस्थ अपनी बाल-लीला स्थली माहिष्मती (महेश्वर) की यात्रा के प्रसङ्ग में जब मैं आर्यसमाज मल्हारगंज, इन्दौर में ठहरा हुआ था, तब अचानक ११ अगस्त की रात्रि में यह ब्राह्मणवचन स्मृति पटल पर उभरा और मेरी वर्षों की शङ्का का समाधान हो गया।]

  निरुक्त के उक्त वचन की व्याख्या में दुर्गाचार्य लिखता है - 

  🔥यद्यस्मादेनांस्तपस्यमानांस्तप्यमानान्ब्रह्म ऋग्यजुःसामाख्यं स्वयम्भु अकृतकमभ्यागच्छत्।[३] अनधीतमेव तत्त्वतो ददृशुस्तपो विशेषेण। यद्वाऽदर्शयदास्मानमित्यर्थोऽत्र विवक्षितः। -निरुक्त श्लोकवार्तिक २।३।५९ पृष्ठ ३१४ 

  भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता (१७।१४-१६) में कायिक वाचिक एवं मानसिक त्रिविध तपों का वर्णन किया है। ये विविध तप निश्चय ही मानव जीवन को उन्नत बनाने हारे हैं परन्तु वेदज्ञान की प्राप्ति के साक्षात् प्रयोजक नहीं हैं। 

[📎पाद टिप्पणी ३. वेंकटेश्वर प्रेस में छपे निरुक्त में शिवदत्त दाधिमथ ने लिखा है “आविर्भूतमित्यर्थः”]

  निश्चय ही स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गृह-त्याग के पश्चात् योग की प्राप्ति एवं सच्चे शिव के दर्शन के लिये कठोर कायिक वाचिक एवं मानसिक तपों से अपने शरीर वचन और मन को कुन्दन बना लिया था, द्वन्द्वातीत अवस्था को प्राप्त कर लिया था, परन्तु सद्गुरु अथवा यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिये वे वर्षों बीहड़ वनों, हिमाच्छादित पर्वतों, उनकी कन्दराओं तथा गङ्गा एवं नर्मदा[४] के तटों पर वर्षों भ्रमण करते रहे। नर्मदा के तट पर ही उन्हें स्वामी विरजानन्द जैसे सद्गुरु का परिचय प्राप्त हुआ। वहाँ से उन्होंने मथुरा आकर स्वामी विरजानन्द सरस्वती से पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन किया, आर्ष-अनार्ष ग्रन्थों की भेदक कुजी प्राप्त की, परन्तु हम उन्हें सं॰ १९२४ के हरिद्वार के कुम्भ के पश्चात् पुनः सर्वविध परिग्रह से रहित केवल लंगोटी वस्त्रधारी के रूप में गङ्गा तट पर विचरते एवं तपस्या करते हुए देखते हैं। यह विचरण निधूत अवस्था में लगभग ८ वर्ष रहा। 

[📎पाद टिप्पणी ४. भारतीय परम्परा में प्रसिद्धि है कि ज्ञान की प्राप्ति के लिये गङ्गा की और मोक्ष की प्राप्ति के लिये नर्मदा की परिक्रमा करनी चाहिये।]

  इसी निधूत अवस्था में विचरण करते हुए, उन्हें विविध शास्त्रों का अवलोकन एवं स्वाध्याय करता हुआ भी पाते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती में यह स्वाध्याय की प्रवृत्ति हमें उनके जीवन के अन्त तक देखने को मिलती है। यद्यपि जीवन चरितों में इस विषय में विशेष उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु यत्र-तत्र स्फूट प्रसङ्ग जीवन-चरितों में अवश्य उपलब्ध होते हैं । यथा -

  बनेडा यात्रा (२ अक्टू० से २६ अक्टू० १८८१) में राजकीय पुस्तकालय से निघण्टु के पाठ मिलाने अथर्व के मन्त्रों पर स्वर लगाने आदि का वर्णन मिलता है। द्र० - लेखरामजी कृत ऋ॰ द॰ स॰ जीवन-चरित, हिन्दी पृष्ठ ५९१ (प्रथम संस्करण)। 

  हमारी दृष्टि में 'स्वाध्याय' ही एक ऐसा तप है, जो वेद के ज्ञान विज्ञान की प्राप्ति में साक्षात् संबद्ध हो सकता है। वैदिक वाङ्मय में 'स्वाध्याय' शब्द वेद के अध्ययन का वाचक है, ऐसा सभी विद्वान् मानते हैं। प्रतिपक्ष[५] में 'प्रवचन' शब्द का प्रयोग होने से स्वाध्याय का अर्थ है - स्वयं वेद का अध्ययन। 

[५. 🔥स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् । तै॰ आर॰ ७।११।१॥ ‘ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च’ (तै॰ आर॰ ९।७ आदि वचनों में)।]

  ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य ने शतपथ में 🔥अथातः स्वाध्यायप्रशंसा के प्रकरण में स्वाध्याय को परम तप कहा है। उन्होंने लिखा है -

  🔥यदि ह वाऽभ्यलङ्कृतः सुखे शयने शयानः स्वाध्यायमधीते आ हैव नखाग्रेभ्यस्तपस्तप्यते य एवं विद्वान् स्वाध्यायमधीते। -शत० ११।५।१।४
  अर्थात् जो व्यक्ति चन्दन माला आदि से अलङ्कृत होकर गुदगुदे बिस्तर पर लेटा हुआ भी स्वाध्याय करता है, वह पैर के नख के अग्र भाग तक तप करता है। 

  इससे स्पष्ट है कि समस्त सांसारिक विषयों से वृत्तियों को रोककर अपने को वेदाध्ययन में ही प्रवृत्त रखना सबसे महान् एवं क्लिष्टतम तप है।

  तैत्तिरीय प्रारण्यक ७।९ में ऋत, सत्य, तप, शम, दम आदि सभी के साथ 'स्वाध्याय और प्रवचन' का निर्देश होने से जहाँ ऋत सत्य आदि धर्मों के पालन की अपेक्षा स्वाध्याय-प्रवचन की महत्ता जानी जाती है, वहाँ इसकी अवश्यकर्तव्यता का निर्देश भी किया है। इस प्रकरण के अन्त में नाक मौद्गल्य के मत का निर्देश इस प्रकार किया है -

  🔥स्वाध्यायप्रवचने एवेति नाको मौद्गल्यः। तद्धि तपः तद्धि तपः। 
  अर्थात् मुद्गल पुत्र 'नाक' महर्षि का मत है कि स्वाध्याय और प्रवचन ही तप है। वही तप है, वही तप है। 

  'स्वाध्याय' की सिद्धि होने पर ही वेदवाक् स्वयं अपने रूप को प्रकट करती है। पातञ्जल योगशास्त्र में स्वाध्याय की सिद्धि होने का फल इस प्रकार दर्शाया है -

  🔥स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः। 
  स्वाध्याय से इष्ट देवता=विषय के साथ स्वाध्याय करनेवाले व्यक्ति का सम्बन्ध उपपन्न हो जाता है। 

  स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे परम वराग्यसम्पन्न द्वन्द्वातीत तपस्वी का प्रथम लक्ष्य तो वेद का वास्तविक स्वरूप जानना ही था। वह उन्हें स्वाध्यायरूप परम तप से प्राप्त हुआ। यह मानना ही उचित प्रतीत होता है। जब मुझे इस तथ्य का आभास हुआ, स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रति मेरी आस्था अत्यधिक बढ़ गई। 

✍🏻 लेखक – महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी
(📖 पुस्तक – मेरी दृष्टि में स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनका कार्य)
प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥
महर्षि जी ने युवावस्था से ही अच्छे योग गुरु प्राप्त हो गए थे। उनकी योग साधना के फल स्वरूप, तन मन आत्मा के मल विक्षेप और अविद्या आवरण हट चुका था। अत: गुरु विराजानंद जी से अष्टाध्यायी व्याकरण पढ़ने के बाद सत्य सनातन वैदिक धर्म के मूल वेद के अर्थ उनको योग के बल पर साक्षात होने लगे। मानो ईश्वर की अंत:प्रेरणा से वह “वेद के दृष्टा – मंत्र दृष्टा ऋषि” बन गए।
यही मूल कारण था कि ऋषि दयानंद सरस्वती जी की अगाध अकाट्य अटूट श्रद्धा वेद पर हो गई। वेद से ही ईश्वर के सत्य चेतन सर्वव्यापक और सर्वरक्षक स्वरूप को उन्होंने समाधि से आत्मसात कर लिया।
यही योगाभ्यास के कारण ऋषि ने सीमित संसाधन होते हुए भी, केवल १५ वर्ष में, अकेले ने ही, अनेक अद्भुत कार्य संपादित कर लिए।
महर्षि दयानंद सरस्वती जी की पताका – वेद धर्म की पताका , ओ३म् ध्वज की पताका पूरे विश्व में लहरा रही है।
आओ! हम मिलकर परमात्मा की वाणी वेद और वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार हेतु, स्वयं सुधार करते हुए, विश्व को श्रेष्ठ आर्य बनाने का पूर्ण पुरुषार्थ करें।
यही कामना भावना और प्रार्थना!
जिज्ञासु योग वेद साधक!
दिलीप वेलाणी।
मुंबई।

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