मेरे मानस के राम अध्याय- 57 : रामचंद्र जी का अयोध्या आगमन
श्री राम जी की आज्ञा पाकर हंसों से युक्त वह उत्तम पुष्पक विमान बड़ा शब्द करते हुए उड़कर आकाश में पहुंचा । उस समय उन्होंने लंका नगरी को बड़े ध्यान से देखा। तब रामचंद्र जी सीता जी से कहने लगे कि देखो! यह समर भूमि है। जहां पर असंख्य राक्षसों और वानरों का वध हुआ है। जहां पर मांस और रक्त की कीचड़ हो रही है। इस प्रकार रामचंद्र जी कई स्थानों को सीता जी को दिखाते जा रहे थे, जहां-जहां उनके प्रवास हुआ या कोई विशेष घटना घटित हुई थी। रामचंद्र जी 14 वर्ष पूर्ण होने पर चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन ऋषि भारद्वाज जी के आश्रम में पहुंचे और उन्हें यथाविधि प्रणाम किया। जब भरत जी को श्री राम के आने का समाचार प्राप्त हुआ तो उन्होंने इस परम आनंददायक समाचार को सुनकर शत्रुघ्न से कहा कि नगर के प्रमुख स्थानों और यज्ञ शालाओं को अद्भुत सुगंधों और पुष्प मालाओं से पवित्र कर सजाएं। भरत जी के आदेश को सुनकर शत्रुघ्न ने अनेक कुली और कारीगरों को आज्ञा दी कि नंदीग्राम से अयोध्या के बीच की सड़क को ठीक करो। जहां कहीं रास्ता उबड़ खाबड़ हो वहां उसे भर दिया जाए और जहां टीले हों, उन्हें छीलकर एक सा कर दिया जाए।
स्वागत की तैयारियां , होने लगी विशेष।
भरत जी ने दे दिया , सबको सही निर्देश।।
राम बना रहे योजना , भरद्वाज के साथ।
जनहित कैसे साधना , क्या करना पुरुषार्थ ?
तिथि पंचमी को किया , ऋषि के यहां निवास।
षष्ठी तिथि में चल दिए , भरत वीर के पास।।
भरत जी धर्म के मर्मज्ञ थे। वह अपने सिर पर श्री राम जी की चरण पादुकाओं को रखे हुए श्वेत पुष्प मालाओं से सुशोभित श्वेत छत्र और राजाओं के योग्य सोने की डंडी का सफेद चंवर लिए हुए उपवास के कारण कृश शरीर वाले, दीन तथा कषाय वस्त्र और काले मृग का चर्म पहने हुए भाई का आगमन सुन अति प्रसन्न हुए और मंत्रियों को साथ लिए हुए श्री राम के स्वागत के लिए पैदल ही चल दिए। सचमुच यह अद्भुत दृश्य था। जिसमें भाई-भाई के स्वागत के लिए इस प्रकार चल दिया था। राज्य का कहीं कोई लोभ नहीं था। कोई मोह नहीं था। कोई लगाव नहीं था। कोई किसी प्रकार का आकर्षण नहीं था। बस, एक ही भाव था कि मेरे भैया घर लौट आए हैं। आर्य राजाओं से अलग संसार के किसी अन्य देश में या किसी देश के इतिहास में ऐसा दृश्य देखने को नहीं मिलता।
भरत ने श्री राम का, किया अनुपम सत्कार।
मंत्री सहित पैदल चले, किया अनुपम व्यवहार।।
चरण पादुका शीश पर , चंवर लिए हुए हाथ।
भरत वीर यों आ रहे , ज्यों सूरज प्रभात।।
देख भरत के भाव को , गदगद थे श्री राम।
चकित विभीषण भी हुए, जांबवान हनुमान।।
भरत का यह भाव ही , भारत का है भाव।
भैया वह होता नहीं , जिसमें ना हो भाव।।
भैया होता भाव का , करै हिये में वास।
भाई के सुन कष्ट को, वारे जो कुछ पास।।
हाथ जोड़ कहने लगे , भरत हिये की बात।
बछड़ा ढो सकता नहीं, एक बैल का भार।।
भ्राता यह संभव नहीं , उठा सकूं यह भार।
अमानत है यह आपकी , रहा आप पर वार।।
देने में आनंद है, लेना बोझ समान।
जो जिसका उसे सौंपिए , यही सयानो काम।।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है। )
मुख्य संपादक, उगता भारत