ओ३म् “भजनोपदेशक पं. ओमप्रकाश वर्मा के जीवन का कश्मीर में प्रचार विषयक एक रोचक प्रसंग”
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पं. ओमप्रकाश वर्मा आर्यसमाज की पिछली कुछ पीढ़ियों से परिचित एकमात्र ऐसे आर्योपेदेशक थे जिन्हें आर्यसमाज के वरिष्ठ संन्यासियों, भजनोपदेशकों, आर्यविद्वानों के साथ कार्य करने का अनुभव था। उनके स्मृति-संग्रह में आर्यसमाज के गौरव को बढ़ाने वाली अनेक ऐतिहासिक घटनायें हैं जिन्हें आर्यजन एवं इसके शीर्ष विद्वान भी उनसे लेखबद्ध करने का आग्रह करते रहे हैं। वर्मा जी ने अपने ऐसे अनेक संस्मरण पं. इन्द्रजित् देव जी को लिखवायें थे। यह सभी प्रसंग पाठकों के लिए अत्यन्त प्रेरणादायक होने के साथ उनकी ज्ञानवृद्धि में भी सहायक हैं। वर्मा जी द्वारा श्री इन्द्रजित् देव जी को बोलकर लिखवायें गये सभी प्रेरक प्रसंगों की एक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। इस पुस्तक का शीर्षक है ‘रोचक एवं प्रेरक संस्मरण वरिष्ठ भजनोपदेशक श्री ओम् पकाश जी वर्मा’।
एक प्रसंग सन् 1956 से सम्बन्धित इस प्रकार है कि वर्मा जी उस वर्ष आर्यसमाज हजूरी बाग, श्रीनगर जम्मू-काश्मीर में वेद प्रचार-सप्ताह के सिलसिले में गये थे। इस कार्यक्रम में उनके अतिरिक्त स्व. पं. शिव कुमार शास्त्री, पं. प्रकाशवीर शास्त्री, प्रिंसिपल पं. लक्ष्मीदत्त दीक्षित (स्वामी विद्यानन्द सरस्वती) तथा लाला रामगोपाल शालवाले भी पधारे थे।
एक दिन आर्यसमाज मन्दिर में वर्मा जी के कार्यक्रम के समय पर ब्रिग्रेडियर राजेन्द्र सिंह भी श्रोताओं में विराजमान थे। वर्मा जी के भजन, गीत तथा विचार सुनकर वे बोले कि कल जन्माष्टमी का त्यौहार है तथा यहां के सैनिक मन्दिर में यह त्यौहार मनाया जायेगा। क्या कल वहां यही भजन, गीत व विचार उनके सैनिकों को भी सायं 7.00 बजे सुनायेंगे?
वर्मा जी ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। बिग्रेडियर राजेन्द्र सिंह जी अगले दिन आये तथा वर्मा जी को सेना के मन्दिर में अपनी गाड़ी में बिठाकर ले गये। यह मन्दिर कश्मीर नरेश के पुत्र डा. कर्णसिंह की कोठी के पास ही था। वर्मा जी ने वहां योगेश्वर कृष्ण जी के विषय में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के विचारों के आधार पर गीत, भजन व विचार प्रस्तुत किये। वर्मा जी के कार्यक्रम को सुनकर सैनिकों व उनके उच्चाधिकारियों में अद्भुत उत्साह का संचार हुआ। वापसी के लिये वर्मा जी जब ब्रिेगेडियर साहब की गाड़ी के भीतर बैठे ही थे कि 2 व्यक्ति सामने वाली सड़क से उनके पास आए तथा बोले ‘क्या पं. ओम प्रकाश वर्मा आप ही हैं?’ वर्मा जी ने उत्तर दिया कि हां, मैं ही ओमप्रकाश वर्मा हूं। तब बख्शी गुलाम मुहम्मद वहां के मुख्यमंत्री थे। वर्मा जी थोड़े समय के लिये चिन्तित हुए व स्मरण करने लगे कि उन्होंने इस्लाम व मुसलमानों के विरोध में क्या कहा है? ऐसा उन्होंने कुछ भी नहीं कहा था। फिर तुरन्त उनके मन में विचार आया कि जब ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह मेरे साथ हैं तो चिन्ता किस बात की करनी है?
वर्मा जी जीप से नीचे उतर गये तथा उन 2 व्यक्तियों से उनका परिचय पूछा? उनमें से एक व्यक्ति ने उत्तर दिया कि वह यहां के राज्यपाल डा. कर्णसिंह के मामा ओकार सिंह हैं। वर्मा जी ने पूछा ‘मेरे योग्य सेवा बताइए’।
उन्होंने कहा कि यहां आपने जो विचार सुनाए हैं, हमने सड़क पार उस कोठी में बैठकर पूरी तरह सुने हैं। क्या आप यही विचार वहां आकर भी सुनाएंगे?
ठीक है, मैं कल सायं 7.00 बजे आर्यसमाज हजूरीबाग में मिलूंगा। आप मुझे कल वहां से लेकर आने की व्यवस्था कीजिये तो मैं आ जाऊंगा।
उन्होंने कहा कि वह कल उन्हें वहां से ले जाएंगे। आर्यसमाज मन्दिर लौटकर वर्मा जी ने पूरा वृतान्त आर्यसमाज के अपने साथी विद्वानों को सुनाया जो वहां उनके साथ पधारे हुए थे। वह सभी विद्वान वर्मा जी के इन बातों को सुन कर बहुत प्रसन्न हुवे। उन विद्वानों ने कहा कि महर्षि दयानन्द सरस्वती के तीन ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’, ‘संस्कारविधि’ तथा ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ डा. कर्णसिंह को भेंट करना तथा अपने उपदेश में महर्षि दयानन्द सरस्वती महाराज तथा आर्यसमाज का नाम अवश्य लेना।
डा. कर्ण सिंह की माताजी के नाम पर बने ‘तारादेवी निकेतन’ में तब डा. कर्णसिंह जी सपरिवार रहते थे। उन दिनों वे जम्मू व कश्मीर के राज्यपाल थे। वह शासकीय बंगले में न रहकर ‘तारादेवी निकेतन’ में ही रहते थे।
इसके आगामी दिन वर्मा जी जब निश्चित कार्यक्रमानुसार वहां पहुंचें तो वहां एक श्वेत वस्त्रधारी महानुभाव को भी उन्होंने देखा। उसने वर्मा जी ने पूछा आपका परिचय? वर्मा जी ने कहा कि मैं आर्यसमाज का एक उपदेशक-प्रचारक ओमप्रकाश वर्मा हूं। उन्होंने पूछा कि आजकल आर्यसमाज क्या कर रहा है? वर्मा जी ने बताया कि आजकल आर्यसमाज हिन्दी रक्षा आन्दोलन चलाने की तैयारी कर रहा है। वर्मा जी ने उनसे उनका परिचय भी पूछा। उन्होंने कहा कि लोग मुझे जनरल करिअप्पा कहते हैं। वर्मा जी प्रसन्न होकर बोले वाह! आप तो हमारे रक्षक सेनापति है। डा. कर्णसिंह ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि आजकल आर्यसमाज की गतिविधियां तो हम पढ़ते रहते हैं परन्तु यह बताइए कि आर्यसमाज को स्थापित हुये लगभग अस्सी वर्ष बीत गये हैं, इन वर्षों में आर्यसमाज ने क्या किया है? वर्मा जी बोले ‘आप जैसे राजाओं को ईसाई बनने से बचाया है।’ यह शब्द वर्मा जी ने सहज व निडर होकर कहे। कर्णसिंह जी बोले क्यों गलत बोलते हो, हमें आर्यसमाज ने ईसाई होने से बचाया है? नहीं, हम यह कदापि नहीं मान सकते।
पं. ओम प्रकाश वर्मा जी ने कहा कि आपको नहीं, आपके दादा महाराज प्रताप सिंह को ईसाई बनने से बचाया है। यदि वे तब ईसाई बन गये होते तो आज आप भी ईसाई होते। कर्ण सिंह जी ने पूछा कि आप कैसे कहते हैं कि मेरे दादा जी को ईसाई बनने से आर्यसमाज ने बचाया? वर्मा जी ने कहा सुनिए, डा. साहब! आपके दादा प्रताप सिंह के शासनकाल तक जम्मू-कश्मीर में पौराणिक पंडितों के दबाव के कारण आर्यसमाज पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा हुआ था। आर्यसमाज इसे कैसे सहन कर सकता था।
सन् 1892 में राजस्थान के पं. गणपति शर्मा लाहौर स्यालकोट के मार्ग से जम्मू में पहुंच गये । जम्मू से वह श्रीनगर आये। श्रीनगर से 23 किमी. दूर स्थित नीचे एक हाऊस बोट में वह रहने लगे। उन्हीं दिनों पादरी जानसन श्रीनगर में पहुंचा व महाराजा प्रताप सिंह से कहने लगा कि अपने पण्डितों से मेरा शास्त्रार्थ कराओ। यदि मैं शास्त्रार्थ में पराजित हो गया तो आपका धर्म स्वीकार करूंगा तथा आपके पण्डित यदि हार गये तो आपको ईसाई बनना होगा।
निश्चित तिथि पर राज-दरबार में शास्त्रार्थ हुआ। विषय था ‘मूर्तिपूजा’। भगवान की मूर्ति बन ही नहीं सकती क्योंकि उसकी कोई आकृति ही नहीं है। मूर्ति को भगवान् मानकर इसकी पूजा करनी चाहिये, इसे सिद्ध करें। कई दिनों तक पण्डित इसे सिद्ध न कर सके। महाराजा अपने पण्डितों का पक्ष कमजोर पड़ता देखकर बपतिस्मा पढ़कर ईसाई बनने को तैयार हो रहे थे कि तभी पं. गणपति शर्मा, जो बहुत देर से सभा में बैठे थे, खड़े हो गये व महाराज प्रतापसिंह को सम्बोधित करके बोले। महाराज! मुझे आज्ञा दें तो मैं जानसन से शास्त्रार्थ करूंगा।
महाराज की पराजय हो रही थी। उन्होंने आज्ञा दे दी परन्तु पराजित पण्डितों व पादरी जानसन ने यह कहकर पं. गणपति जी का विरोध किया कि यह तो आर्यसमाजी पण्डित है। महाराज ने यह सोचकर कि यह जानसन को तो ठीक कर ही देगा, पण्डितों व जानसन की आपत्तियां निरस्त कर दीं व पंडित गणपति शर्मा जी को जानसन से शास्त्रार्थ करने को कहा।
पं. गणपति जी बोले, पादरी जी। आप प्रश्न करें, मैं उत्तर दूंगा। जानसन बोले, हम आपसे शास्त्रार्थ करेंगे। पंण्डित गणपति शर्मा ने उन्हें कहा कि पहले यह बताएं कि शास्त्रार्थ शब्द का अर्थ क्या है? क्या शास्त्र से मतलब आपका छः शास्त्रों, योग, सांख्य, न्याय, वैशेषिक, वेदान्त तथा मीमांसा से है? यदि इनसे ही आपका मतलब है तो बताइये कि इन दर्शन शास्त्रों में से किस का अर्थ करने आप यहां आए हैं? क्या आपको ज्ञान है कि अर्थ शब्द अनेकार्थक है। अर्थ का एक अर्थ धन होता है। दूसरा अर्थ प्रयोजन होता है जबकि तीसरा अर्थ द्रव्य, गुण व कर्म (वैशेषिक दर्शनानुसार) भी है। आप कौन-सा अर्थ समझने-समझाने आये हैं? शास्त्र भी केवल छः नहीं हैं। धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र व नीतिशास्त्र आदि कई शास्त्र विषयों की दृष्टि से भी हैं। आप ‘शास्त्रार्थ’ शब्द का अर्थ समझायेंगे तो हम आगे बात चलायेंगे।
जानसन ने गड़बड़ायी वाणी में उत्तर दिया कि हम इसका उत्तर न दे सकेंगे। इस पर प्रतापसिंह जी ने सिर हिलाकर कहा अब काहे को उत्तर आयेगा। तब पं. जी ने फिर कहा, महाराज! जानसन उत्तर नहीं दे रहा है।
इस पर प्रतापसिंह जी बोले, पण्डित जी! यह तो आप पहले ही प्रश्न का उत्तर नहीं दे पा रहा है व मौन खड़ा है तो अब जाये यह अपने घर। पण्डित जी! आपने मुझे ही नहीं, पूरे जम्मू-कश्मीर की प्रतिष्ठा बचाई है। पूरे जम्मू-कश्मीर को ईसाई होने से बचाया है। हम आपसे बहुत प्रसन्न हैं। बताईये, आपको क्या भेंट दूं?
महाराज! मुझे अपने लिये कुछ नहीं चाहिये। देना ही है तो दो काम कीजिये। प्रथम तो यह कि आर्यसमाज पर लगा प्रतिबन्ध हटा दें तथा दूसरा यह काम करें कि यहां आर्यसमाज को स्थापना हो जाये।
वर्मा जी ने यह घटना डा. कर्णसिंह को पूरी सुनाई और उन्हें यह भी बताया कि श्रीनगर में हजूरी बाग का आर्यसमाज मन्दिर आपके दादा प्रतापसिंह जी द्वारा दी भूमि पर ही स्थापित हुआ था। प्रतापसिंह जी ने आर्यसमाज पर अपने पिता रणवीर सिंह द्वारा पौराणिक पण्डितों के दबाव व धमकियों के कारण लगाए प्रतिबन्धों को तुरन्त हटा दिया था।
श्री ओमप्रकाश वर्मा जी की बातें सुनकर डा. कर्णसिंह मौन हो गये। वर्मा जी ने उन्हें बताया कि यह घटना पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति जी द्वारा लिखित ‘आर्यसमाज का इतिहास प्रथम भाग’ में पृष्ठ 254 पर संक्षेप में वर्णित हैं। बाद में डा. कर्णसिंह के घर पर वर्मा जी के भजन, गीत व उपदेश हुये तथा उनकी गाड़ी उन्हें हजूरी बाग आर्यसमाज मन्दिर, श्रीनगर में वापिस छोड़ गई। वर्मा जी ने आर्यसमाज में उनके साथ पधारे पं. शिवकुमार शास्त्री आदि चारों उपदेशकों को उक्त पूरी घटना विस्तारपूर्वक सुनाई तो वे सभी बहुत प्रसन्न हुये और उन्होंने वर्मा जी को बहुत शाबाशी दी।
इन पंक्तियों के लेखक ने उपर्युक्त प्रसंग पं. इन्द्रजित् देव जी लिखित तथा आचार्य सोमदेव आर्य जी द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘रोचक एवं प्रेरक संस्मरण वरिष्ठ भजनोपदेशक श्री ओम प्रकाश जी वर्मा’ से लिया है। हम पुस्तक के लेखक एवं सम्पादक जी का हृदय से धन्यवाद करते हैं। इस लेख में प्रस्तुत साम्रगी को हमने कुछ परिवर्तित रूप में प्रस्तुत किया है। हम आशा करते हैं कि पाठकों को लेख की सामग्री एवं घटनायें पढ़कर प्रसन्नता होगी। यदि वर्मा जी पं. इन्द्रजित् देव जी को इस व अन्य संस्मरणों को न लिखवाते तो आर्य जनता इस महत्वपूर्ण इतिहास से अनभिज्ञ रह जाती है। अतः वर्मा जी एवं श्री इन्द्रजित् देव जी का धन्यवाद है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य