डॉ राकेश कुमार आर्य
*कि* सी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके अपने निजी गुणों से ही नापा जाता है। जैसे गुणावगुण उसके भीतर होते हैं और उनमें से जिसका अधिक अनुपात होता है, वैसा ही उस व्यक्ति का व्यक्तित्व होता है। यदि कोई व्यक्ति अवगुणों से भरा हुआ है तो उसका व्यक्तित्व भी अवगुण से युक्त होगा। जबकि जो व्यक्ति गुणों से युक्त है या भरा हुआ है, उसका व्यक्तित्व सद्गुणों से सुभूषित होगा।
जीजाबाई का पुत्र था, दिव्य गुणों से युक्त।
आदर्श उसका एक था-भारत करना मुक्त ।।
जब किसी राजा की बात की जाती है तो उसके व्यक्तित्व के आंकलन के बारे में भी यही प्रक्रिया अपनायी जाती है कि उसका व्यक्तित्व किन गुणों से या किन अवगुणों से युक्त है? वह जैसा भी होगा, वैसा ही उसका व्यक्तित्व माना जाएगा। शिवाजी के संदर्भ में यदि व्यक्तित्व की इसी पद्धति को अपनाकर देखा जाए तो पता चलता है कि वह अपने समकालीन राजाओं में निराले और अद्भुत थे। उनकी नेतृत्व क्षमता और उनके व्यक्तित्व के गुण अपने आप में बेजोड़ थे।
छत्रपति शिवाजी महाराज की नेतृत्व क्षमता की तुलना करते समय इतिहासकार अक्सर सिकंदर या फिर सीजर से करते पाए जाते हैं। सिकंदर और सीजर को आधुनिक इतिहासकारों ने बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ और नेतृत्व क्षमता के गुणों से भरे हुए शासकों के रूप में देखा है और उन्हें इतिहास में इसी प्रकार निरूपित करने का प्रयास भी किया है। यद्यपि इन तीनों की राजनीतिक मान्यताएँ, राजनीतिक सिद्धांत, राजनीतिक आदर्श और राजनीतिक उद्देश्यों सहित राजनीतिक विचारधाराएँ भी भिन्न-भिन्न थीं। सिकंदर जैसे लुटेरों से शिवाजी जैसे महायोद्धा और देशभक्त की तुलना करना इतिहास के साथ भी घोर अन्याय करना है। इतिहास किसी लुटेरे और किसी शासक को एक साथ नहीं तोल सकता। क्योंकि इतिहास की भी अपनी मर्यादाएं हैं, उसके अपने सिद्धांत हैं और इतिहास कभी भी सिद्धांतों से समझौता नहीं करता है। जिस इतिहास में सिद्धांतों से समझौता करने की प्रवृत्ति होती है, वह इतिहास, इतिहास होकर भी इतिहास नहीं होता। इतिहास में सिकंदर को चाहे विश्व विजेता कहा जाए परंतु वास्तव में वह विश्वविजेता नहीं था, जबकि शिवाजी विश्वविजेता से पहले आत्म विजेता बनने में विश्वास रखते थे और इसी के लिए उन्होंने अपने जीवन भर संघर्ष किया। मानवतावाद से ओतप्रोत और सबका साथ सबका विकास में विश्वास रखकर चलने वाला एक आत्मविजेता शासक विश्वविजेता का अहंकारी लक्ष्य लेकर चलने वाले शासक से कई गुणा उत्तम होता है। आत्मविजेता और मानवतावादी शासक के भीतर किसी प्रकार के हिंसक भाव नहीं होते। जिसका वैचारिक जगत हिंसा के विचारों से शून्य होता है, वही शासक सर्वोत्तम होता है। उसका क्रोध क्रोध नहीं होता, अपितु मन्युभाव से प्रेरित होता है, जबकि सिकंदर जैसे दुष्ट आतताई शासक मन्युभाव को समझते तक भी नहीं थे। उसके भीतर हिंसा के भाव थे और वह विश्व को काटकर या मिटाकर भी विश्व विजेता बनने में संकोच नहीं करता था।
सिकंदर के संदर्भ में इतिहासकारों ने जिस गुण को किसी शासक की महानता माना है, अर्थात विश्व विजेता बनने के लिए संसार के लोगों का नरसंहार करना, उसे हमारे लोगों ने या महान ऋषियों और लेखकों ने दानवता कहकर स्थापित किया है। शिवाजी जैसे मानवता के पुजारी और सिकंदर व सीजर जैसे दानवता के पुजारी या मानवता के घोर विरोधियों की कोई तुलना कभी नहीं की जा सकती।
आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि सिकंदर, सीजर और शिवाजी इन तीनों ने ही हमेशा असाधारण प्रशासनिक और प्रबंधन कौशल (administrative and management Skills) का प्रदर्शन किया ।
शिवाजी ने भारत की प्राचीन राज्य-व्यवस्था का और राजधर्म का बड़ी गहराई से अवलोकन किया था। उन्होंने अपने यौवन का सदुपयोग जहाँ बड़ी बड़ी जीतों को प्राप्त करने में किया, वहीं उन्होंने भारतीय राजधर्म की शिक्षा लेने के लिए भी अपना मूल्यवान समय लगाया। यही कारण रहा कि वह भारत के राजधर्म की गहराई को समझ गए थे। शिवाजी ने अपने समकालीन शासकों को देखा था कि उनका शासन पूर्णतया अनुत्तरदायी था और वे निरंकुशता में विश्वास रखते थे। स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश होकर ये शासक अपनी प्रजा पर शासन करते थे, जबकि शिवाजी एक पूर्ण उत्तरदायी शासन की व्यवस्था देने के पक्षधर थे।
एक जनहितकारी शासक और शासन के लिए यह आवश्यक होता है कि उसमें मर्यादा, जनता के प्रति उत्तरदायित्व का बोध हर पग पर होता है। शिवाजी इसी प्रकार के शासन के पक्षधर थे। यही कारण है कि उनके साम्राज्य में शासन की नीतियों में प्रजावत्सलता, अनुशासन, मर्यादा और उत्तरदायित्व का बोध स्पष्टतः झलकता था। शिवाजी महाराज की प्रबंधन नीतियाँ आधुनिक काल की निगम- नीतियों से कई गुणा अधिक परिपूर्ण थीं, क्योंकि वह लोगों के लिए हितकारी होने के साथ-साथ बहुत ही व्यवहारिक एवं पारदर्शी भी थीं।
शिवा सिकंदर था नहीं, सीजर उसको हेय।
भारत की स्वतंत्रता, थी उसका जीवन ध्येय ।।
आधुनिक प्रबंधन की परिभाषा में कुशल नेतृत्व वह है जो जनता को सारे मौलिक अधिकारों को प्रदान करे और उसके कल्याण के लिए अच्छी से अच्छी योजनाएँ लागू करने में विश्वास रखता हो। साथ ही सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय प्रदान करते समय जनता के मध्य किसी भी प्रकार का भेदभाव न करता हो। ऐसे शासक की दृष्टि और दृष्टिकोण में किसी प्रकार की संकीर्णता नहीं होती। वह विशाल हृदयता के साथ और उदारमना होकर अपने लोगों के कल्याण में रत रहता है।
नेतृत्व केवल सपने ही नहीं देखता है, अपितु सपनों को साकार रूप देकर उन्हें यथार्थ के धरातल पर लागू भी करता है और जब वह सपने सही अर्थों, संदर्भों और परिप्रेक्ष्य में लागू हो जाते हैं या व्यावहारिक स्वरूप ले लेते हैं, तभी किसी शासक के नेतृत्व और उसके प्रबंधन के गुणों की सही परख हो पाती है। इस प्रकार नेतृत्व और प्रबंधन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। नेतृत्व के लिए आवश्यक है कि उसकी नीतियों में उसकी प्रजा के लोग स्वाभाविक रूप से न केवल रुचि रखते हों, अपितु उसे अपना समर्थन भी व्यक्त करते हों। साथ ही प्रबंधन की उसकी नीतियों को स्वीकार करते हुए उसके पूरे तंत्र के साथ स्वाभाविक रूप से अपना समर्थन व्यक्त करते हों और उसके साथ समन्वय स्थापित कर उसी दिशा में जोर लगाते हों, जिस दिशा में प्रबंधन तंत्र स्वयं बल लगा रहा हो। जब ऐसी स्थिति किसी राज्य में स्थापित हो जाती है तो तब समझना चाहिए कि राजा और प्रजा के बीच बहुत ही सुंदर समन्वय है। शिवाजी के समकालीन शासक अर्थात मुगल लोग अपने प्रजाजनों के साथ ऐसा संबंध में कभी भी स्थापित नहीं कर पाए। यही कारण रहा कि उनके विरुद्ध जनांदोलन होते रहे और विद्रोह की स्थिति में रहने वाले प्रजाजन सदैव ही अशांत और असंतुष्ट रहे। शिवाजी ने ऐसा अवसर अपने लोगों को नहीं दिया और यही उनकी महानता का एक बड़ा कारण था।
विद्वानों का मानना है कि जैसे किसी डूबते हुए जहाज पर सभी की रक्षा करते हुए बाहर निकलने वाला अंतिम व्यक्ति जहाज का कप्तान होना चाहिए, वैसे ही एक अच्छे नायक का सबसे महत्वपूर्ण गुण यह है कि वह अपने कार्यदल को सुरक्षित रखते हुए किसी भी विपदा का सामना पहले स्वयं करे। शिवाजी महाराज की अफजल खान के साथ भेंट और तत्पश्चात उसके वध का अध्याय उनके चरित्र के नेतृत्व गुणों को भली प्रकार प्रकट करता है।
बीजापुर के बादशाह आदिलशाह के सरदार अफजल खान ने एक बड़ी सेना के साथ शिवाजी महाराज के स्वराज पर आक्रमण किया। रास्ते में बीजापुर सल्तनत के अन्य दुर्गों से आने वाली सहायक सेनाएँ अफजल खान की सेना से जुडती गईं। हथियार सेना और दोनों को चलाने वाली वित्तीय स्थिति, इन सभी में अफ़जल ख़ान शिवाजी से अधिक बलशाली था। मगर फिर भी शिवाजी महाराज ने अपनी सेना का नेतृत्व करते हुए और पराजय स्वीकार न करते हुए सामने से युद्ध करने का फैसला लिया। अपने सभी विकल्पों पर विचार करते हुए शिवाजी महाराज ने प्रतापगढ़ दुर्ग पर ही रहने की ठानी और राजनयिक वार्तालाप की आढ़ में अफ़जल ख़ान से बचने का उपाय ढूंढ निकाला। उन्होंने अफजल खान को एक खत भेजा, जिसमें लिखा था कि वे किसी प्रकार का टकराव नहीं चाहते और युद्ध की जगह समझौता करना चाहते हैं। शिवाजी महाराज और अफजल खान की भेंट की व्यवस्था प्रतापगढ़ के पास हुई। मगर अफजल खान की धूर्तता से वाकिफ़ शिवाजी महाराज ने सुरक्षा हेतु छुपे शस्त्रों जैसे कि खंजर और बाघनख से खुद को सशस्त्र करते हुए अपने कपड़ों के नीचे कवच भी धारण कर लिया।
शिवाजी के उत्कृष्ट मानवीय गुणों और नेतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर लाला लाजपतराय लिखते हैं- “जीजाबाई तू धन्य है, तेरा गर्भ धन्य है, तेरी जैसी माता हो तो शिवाजी जैसा पुत्र क्यों ना पैदा हो ? तेरी जैसी माँ छाती का दूध पिलाने वाली हो तो शिवाजी जैसा शूरवीर हिंदुओं के खोए हुए गौरव को दोबारा लाकर अपने उन्नत ललाट पर क्यों न राजतिलक लगाए ? तेरी जैसी गोद हो तो शिवाजी जैसा पुत्र केहरी जैसी शक्ल क्यों न धारण करे? जीजाबाई तू धन्य है, जिसके बेटे ने धर्म की रक्षा की, जाति की रक्षा की, तेरे लिए और अपने यश की धारा बहा दी।”
जब शिवाजी महाराज की भेंट अफजल खान सुनिश्चित कराई गई तो उस समय जिस प्रकार उन्होंने अपने बौद्धिककौशल को दिखाया, उसमें उनका न केवल बुद्धि चातुर्य दिखाई देता है अपितु उनकी स्थितप्रज्ञता भी स्पष्ट होती है, जो एक उच्च नेतृत्व क्षमता से संपन्न नायक के भीतर ही मिलती है। अफ़ज़ल से उनकी भेंट की तिथि 10 नवंबर, 1659 निश्चित हुई थी। भेंट के लिए यह निश्चित किया गया था कि जब अफजल और शिवाजी बात करेंगे तो उस समय उनके साथ कोई अन्य व्यक्ति वहाँ पर नहीं होगा। जैसे ही शिवाजी महाराज और अफ़जल ख़ान आमने-सामने आए तो अफ़जल खान ने शिवाजी महाराज को गले लगाने के लिए हाथ ऐसे आगे बढ़ाए कि जैसे वह शिवाजी महाराज से मिलने के लिए कितना व्याकुल है? और वह आज ही शिवाजी महाराज के साथ बैठकर सारी समस्याओं का समाधान बहुत ही सद्भाव पूर्ण ढंग से करने में विश्वास रखता है। यद्यपि वह ऐसा करने का नाटक कर रहा था और इस नाटक को शिवाजी महाराज भली प्रकार समझ रहे थे, उन्हें यह ज्ञात था कि अफ़ज़ल के हृदय में कौन-सा षड्यंत्र इस समय कार्य कर रहा है? इसके उपरांत भी शिवाजी सहज रहे और उन्होंने शत्रु को ही पहला वार करने का अवसर दिया। अफ़ज़ल ख़ान ने शिवाजी को बाँहों में भरकर बगलगीर होने का नाटक किया। उसने शिवाजी की गर्दन बायें हाथ से थामकर दाहिने से कटार शिवाजी के पार्शव में भोंकने का प्रयत्न किया, परंतु शिवाजी तो पहले से ही सावधान और सतर्क थे। वह पहले से ही कवच पहने थे, लोहे से लोहा टकराया और आवाज हुई, शिवाजी सावधान हो गए। यदि इस समय वह थोड़ा-सा भी प्रमाद बरतते तो परिणाम कुछ भी हो सकता था, परंतु सतर्क शिवाजी ने तुरंत निश्चय किया और अपना बाघनख वाला बायां हाथ अफजल खान की कमर तक ले जाकर अफ़ज़ल ख़ान के पेट में से आंतें निकाल लीं। खून का फव्वारा छूटा और अफ़जल खान दर्द से चीखा होगा। इसी बीच में शिवाजी ने अपना बिछवा उसके सीने में भोंक दिया।
जान पड़ता है कि अधिक आत्मविश्वास के कारण अफजल खान ने जिरहबख्तर नहीं पहन रखा था। अफजल खान जख्मी होकर चीख पड़ा-धोखा, दुश्मन को मारो। अफजल खान के मरने पर उसके साथी उसका शव उठाना चाहते थे, परंतु संभाजी कावजी ने उन सेवकों के पैर काट डाले और खान का सिर काटकर शिवाजी के पास ले आया।
सर यदुनाथ सरकार ने 'शिवाजी और उनका काल' नामक पुस्तक में लिखा है "अफजल खान के मन में कपट अवश्य था, इसीलिए उसने इतनी बड़ी सेना तैयार कर रखी थी। वह अति आत्मविश्वास में यह मान बैठा था कि उस पहाड़ी चूहे को पकड़ लेने पर मराठा क्या लड़ेंगे? उनका नेता ही मारा जाएगा तो सारा मराठा संगठन ताश के महल की तरह भरभरा कर गिर पड़ेगा।"
अधिकांश इतिहासकारों की यह भी मान्यता है कि अफ़ज़ल ख़ान ने ही पहला आक्रमण किया था। यदुनाथ सरकार निष्कर्ष रूप में लिखते हैं, "सारे साक्ष्य देखकर मेरा मत है कि अफ़ज़ल ख़ान ने पहला वार किया और शिवाजी ने सिर्फ वह किया जिसे एडमंड वर्क जैसे अंग्रेज इतिहासकार आत्मरक्षा के लिए हत्या कहते हैं। मैंने मॉडर्न रिव्यू (1907) में लिखा था कि यह हीरे को हीरे से काटने जैसा है।"
निजाम उल मुल्क तृतीय सिकंदर जहाँ के वजीर अमीर आलम ने भी लिखा है, “शिवाजी ने अफ़जल खान को शिविर में जाते ही सलाम कहा था।” अफ़ज़ल ख़ान ने दीवान कृष्ण से पूछा, “क्या यही आदमी शिवाजी है?” ‘हाँ’ का जवाब मिलने पर अफ़ज़ल ख़ान ने शिवाजी से अपनी जीती हुई जमीन लौटाने को कहा। शिवाजी ने कहा- “मैंने ऐसा करके मुगल शासन की सेवा ही की है, जिसके लिए मेरी प्रशंसा होनी चाहिए।” खान ने कहा, “अच्छा, अब यह सारे किले मुझे दे दो, और बादशाह से मिलने चलो।” शिवाजी ने कहा, “ऐसा फरमान है तो सिर आँखों पर लूँगा।” इस समय दीवान कृष्ण बीच में ही बोल पड़ा, “अब तुम खान साहब के मातहत आ गए हो। तुम्हें पहले अपने गुनाहों की माफी माँगनी चाहिए। तभी फरमान दिया जाएगा।” शिवाजी ने कहा, “अब हम दोनों मुगल सल्तनत के बंदे हैं। खान मेरे गुनाहों की माफी देने का हकदार कैसे हैं? पर तुम सलाह देते हो तो मैं अपना सिर उसकी गोदी में रखूँगा।” यह कहकर शिवाजी खान से गले मिलने आगे बढ़े। अफजल ख़ान को वीरता का नशा हो गया था और उसने शिवाजी को बगलगीर करके मजबूती से पकड़ा और अपनी कटार से वार किया।
कुल मिलाकर इस सारे प्रकरण में शिवाजी की बौद्धिक शक्तियों का और नेतृत्व क्षमता का हमें पता चलता है। वह विषम से विषम परिस्थिति में भी अपने साहस, शौर्य, वीरता, गंभीरता, मर्यादा को बनाए रखने में सक्षम और सफल रहते थे। यहाँ पर भी उन्होंने अपने इन श्रेष्ठ गुणों का प्रदर्शन किया। अफजल खान के वध के इस पूरे अध्याय में शिवाजी महाराज ने अपने नेतृत्व कौशल का श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है ।
अफजल सौंपा अजल को हर्षित थे नर नार।
देख शिवा की वीरता हुई फूलों की बौछार ।।
5 अप्रैल, 1663 को शिवाजी ने शाइस्ता खान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की थी। उस समय भी उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता का भली प्रकार प्रदर्शन किया था। शाइस्ता खान उन दिनों पुणे पर 3 वर्ष से डेरा डाले पड़ा था। शिवाजी ने रात्रि में अचानक अपने कुछ विश्वसनीय साथियों के साथ उसकी छावनी पर आक्रमण कर दिया। इसमें शाइस्ता खान का युद्ध फतेह भी मार डाला गया। कहा जाता है कि स्वयं शाइस्ता खान की अंगुलियाँ भी इस युद्ध में कट गई थी। उसके दर्जनों अंगरक्षक, 6 पत्नियां और कई सेनापति मारे गए थे।
शिवाजी की आक्रमण करने की योजना इतनी गोपनीय और विवेकपूर्ण चतुराई से पूर्ण की गई थी कि शत्रु को तनिक भी भनक नहीं लगी और वह ऐसी आपत्ति में फंस गए कि युद्ध भूमि से भागकर औरंगाबाद में जाकर शरण लेनी पड़ी। उसे शीघ्र ज्ञात हो गया कि शिवाजी के रूप में संभवतः शंकर जी अपना तांडव नृत्य प्रस्तुत कर रहे हैं।
खफी खान ने युद्ध में शिवाजी के सैनिकों की संख्या 400 मानी है और वह कहता है कि अपने गुप्तचरों से ही शिवाजी ने मुगलों की दुर्बलताओं का पता लगा लिया था । इस प्रकार शिवाजी ने पूरी योजना बनाकर शाइस्ता खान को परास्त किया। मुगल सेना में भगदड़ मच गई। 400 सैनिकों के बल पर शिवाजी महाराज ने 77000 अश्वदल और 50000 सैनिकों के साथ-साथ 32 करोड़ के खजाने को साथ लाए हुए शाइस्ता खान के साथ सामना किया और अपनी वीरता और साहस के बल पर तीन दिनों में ही उसे भयभीत होकर भाग खड़ा होने पर विवश कर दिया। इस सारे घटनाक्रम में शिवाजी की नेतृत्व क्षमता का हमें पता चलता है कि वह शत्रु को किस प्रकार घेरकर मारने में सफल हो जाते थे ?
शिवाजी अपने राज्य प्रबंधन में बहुत ही निपुण थे। उन्होंने अपनी देशभक्ति का परिचय देते हुए तत्कालीन मुगल अधिकारियों के लिए एक पत्र लिखा था। जिसमें वह लिखते हैं कि, "मुगलों के खबर देने वाले गलत खबरें भेज रहे हैं कि मेरे कई सूबे उन्होंने जीत लिए हैं। यह जमीन इतनी मुश्किल है और यहाँ के किलों पर घोड़ों से चढ़ पाना भी असंभव है। ऐसी स्थिति में यह आपके खबरनवीस अपने ख्याली घोड़े दौड़ा रहे हैं। यहाँ 60 किले हैं, कई समुद्र किनारे हैं। यहाँ अफजल खान और शाइस्ता खान मारे जा चुके हैं। शाइस्ता खान तो 3 वर्ष तक प्रयास करता रहा था, पर कुछ ना हुआ। अपनी मातृभूमि की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है, मुझ पर ईश्वरीय कृपा है। यहाँ हमला करने वाला कभी सफल नहीं हो पाया।"
इस पत्र से शिवाजी के बौद्धिक चातुर्य, कुशल प्रबंधन, नीति प्रबंधन, ईश्वर भक्ति और देशभक्ति जैसे गुणों का पता चलता है। उनके विषय में 'आलमगीरनामा' में ही लिखा गया है कि, "बावजूद सारी कोशिशों के मुगलों को एक भी किला नहीं मिल सका और मराठों के विरुद्ध उनका अभियान खाली ही गया।" इस स्वीकारोक्ति से पता चलता है कि मुगल शिवाजी के सामने अपने आपको कितना असहाय अनुभव करते थे? उनकी नीति मत्ता और कुशल प्रबंधन के सामने मुगलों की एक न चल सकी।
शिवाजी महाराज ने देशहित में और भारतीय संस्कृति की रक्षार्थ जिस राज्य की नींव रखी, वह अधिक देर तक इसीलिए स्थापित रहा कि उसकी स्थापना करने में शिवाजी जनहित को साधना चाहते थे। वह चाहते थे कि भारत में वास्तविक जनतंत्र की स्थापना हो और राजा अपनी प्रजा के प्रति कर्तव्यभाव से भरा हो। विद्वानों का निष्कर्ष है कि शिवाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य की पक्की नींव सामरिक, नैतिक तथा शिष्ट व्यावहारिक परंपराओं पर रखी। जहाँ मुगल एवं क्षेत्रीय सल्तनतों के लगातार के आक्रमणों से थककर या डरकर कोई और राजा अपनी पराजय स्वीकार कर लेता वहीं शिवाजी महाराज वीरता और आक्रमकता से डटकर उनका सामना करते रहे। युद्ध के समय में नियोजन कुशलता, किसी भी व्यक्ति की सही परख, समय का सम्मान और अनुशासन जैसे गुण उनके कुशल नेतृत्व के साक्षी हैं। इसी नेतृत्व में मुट्ठीभर सैनिक हजारों की सेना से लड़ते हुए विजयश्री प्राप्त कर लेते थे। एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर राष्ट्र के निर्माण करने का उनका सपना और दृढ़ संकल्प ही वास्तव में उनकी सफलता का आधार था। उनके अनुयायियों में उनके लिए प्रगाढ़ श्रद्धा, सम्मान और निष्ठा का कारण उनका महान नेतृत्व कौशल तथा उच्च नैतिक चरित्र है। आज भी शिवाजी महाराज को एक न्यायसंगत एवं कल्याणकारी राजा और नायक के रूप में ही स्मरण किया जाता है।
वीर सावरकर जी ने मानो अपने निम्नलिखित शब्दों को लिखकर शिवाजी जैसी दिव्य-आत्मा के प्रति ही अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है, "मृत्यु का भय तो केवल सामान्य जीवों को ही सता पाता है, जो स्वतंत्रता की साधना के दीवाने हों, जिन्होंने स्वतंत्रता की लक्ष्मी के ही चरणों में अपने जीवन पुष्प समर्पित करने का संकल्प कर लिया हो, उनको भला भय और चिंता कैसे हो सकती है? विजय की आशा से युद्ध करने वाला तो जीवन के प्रति मोह रख सकता है। कीर्ति हेतु संघर्ष करने वाला भी शायद कभी भयभीत हो जाए, किंतु सिर पर कफन बाँध कर ही जो समर भूमि में डट गया हो, भय उसके तो पास भी नहीं भटक सकता। ऐसे लोगों का मार्ग कौन रोक सकता है या अवरुद्ध कर सकता है? आकाश से भले ही वज्रपात हो अथवा धरती अंगार उगलने लगे, उसके रास्ते में रुकावट नहीं आ सकती, क्योंकि वह तो स्वतः ही मृत्यु के पथ का प्रतीक है। जो मृत्यु का आलिंगन करने को तत्पर है, निराशा उसके पास कैसे फटकेगी ? जिन्होंने मृत्यु को ही अपनी प्रेयसी समझकर उसका आलिंगन करने का दृढ़ निश्चय कर लिया हो, ऐसे राष्ट्र भक्तों को कौन भयभीत कर सकता है? (संदर्भ- '1857 का स्वातन्त्रय समर' पृष्ठ 365)
क्रमशः
डॉ राकेश कुमार आर्य