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धर्म-अध्यात्म

ओ३म् *🌷श्राद्ध करना चाहिए या नहीं?🌷*

ओ३म्

🌷श्राद्ध करना चाहिए या नहीं?🌷

प्रश्न:-श्राद्ध करना चाहिए या नहीं?

उत्तर:-श्राद्ध करना चाहिए।जीवित माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी, गुरु आचार्य तथा अन्य वृद्धजनों एवं तत्ववेत्ता विद्वान् लोगों को अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सेवा करनी चाहिए, इसी का नाम ‘श्राद्ध’ है।

प्रश्न:-‘श्राद्ध’ तो मरे हुए पितरों का होता है, जीवित का भी कहीं श्राद्ध होता है?

उत्तर:-पहले यह सोचो ‘पितर’ शब्द का अर्थ क्या है? पितर का अर्थ है रक्षा करने वाला। रक्षा तो वही कर सकता है जो जीवित हो। जीवित ही अपनी सन्तानों को उपदेश दे सकते हैं, और अपने जीवन के अनुभव द्वारा संसार के व्यवहारों का ज्ञान करा सकते हैं। जीवित ही स्वसंतानों की सर्व प्रकार रक्षा कर सकते हैं, मरने पर तो पितर, पितर ही नहीं रहता, क्योंकि पितर न तो आत्मा है और न शरीर है। आत्मा और शरीर के संयोग विशेष का नाम है। जब मृत्यु ने दोनों का सम्बन्ध छुड़ा दिया तो पितर रह कहाँ गया? यदि आत्मा का नाम पितर हो तो आत्मा नित्य और अविनाशी न रहेगा, नाशवान् हो जायेगा। क्योंकि पितर मानने पर उसमें आयु का और छोटे बड़े का भेद मानना पड़ेगा। एक आत्मा की उत्पत्ति पहले माननी होगी, दूसरे आत्मा की उत्पत्ति पश्चात् माननी होगी। यदि ऐसा न मानोगे तो ‘पितर’ शब्द का आत्माओं से सम्बन्ध ही न जुड़ेगा। जब सम्बन्ध ही न जुड़ेगा, तो श्राद्ध किया किसका जायेगा? फिर आत्मा को तो सभी लोग अविनाशी मानते हैं, अतः उसमें आयु का और छोटे बड़े का भेद ही नहीं हो सकता। रहा शरीर, उसको भी ‘पितर’ नहीं कह सकते। प्रथम तो आत्मा के निकलते ही शरीर की ‘शव’ संज्ञा हो जाती है, दूसरे यदि शरीर ‘पितर’ होता भी तो उसे दबाने या जलाने वाले को भारी पाप लगता। क्योंकि मरने पर या तो शरीर दबाया जाता है जला दिया जाता है। किसी पितर को जमीन में दबा देना या जला देना कोई पुण्य का काम नहीं हो सकता। परन्तु मृतक शरीर को दबाना या जलाना लोग पुण्य समझते हैं। वास्तव में नाते रिश्ते और पितर आदि सम्बन्ध इस संसार से ही सम्बन्ध रखते हैं। मरने पर न कोई किसी का पितर है न कोई किसी की सन्तान है। सब जीव अपना-२ कर्म-फल भोगने के लिए संसार क्षेत्र में आते हैं। शरीर धारण करने पर एक दूसरे से अनेक प्रकार के सम्बन्ध जुड़ जाते हैं। यदि कहीं मरने के पश्चात् भी जीवों के साथ माता-पिता, बहिन-भाई आदि के सम्बन्ध बने रहते हैं, तो पुनर्जन्म में माता का पुत्र से, बहिन का भाई से, बेटी का बाप से विवाह होना सम्भव हो जायेगा। इसलिए जीव से माता-पिता आदि का सम्बन्ध नहीं है, जीव और शरीर के संयोग विशेष से सम्बन्ध है। अतः श्राद्ध जीवितों का ही होता है।

प्रश्न:- वर्ष भर में १५ दिन श्राद्ध के निश्चित हैं कभी किसी पितर का श्राद्ध किया जाता है, कभी किसी का किया जाता है। पितर लोग सूक्ष्म शरीर धारण करके श्राद्ध के दिनों में आते हैं और ब्राह्मणों के साथ ही भोजन करते हैं। यदि कभी पितृ लोक से पितर न भी आ सके तो ब्राह्मणों को खिलाया हुआ भोजन उन्हें मिल जाता है।

उत्तर:-जब मैं बता चुका हूँ कि ‘पितर’ नाम आत्मा या शरीर का नहीं है, आत्मा और शरीर के विशेष सम्बन्ध का नाम है। फिर यह कहना कि पितर सूक्ष्म शरीर धारण कर भोजन करने आते हैं, सरासर हठ और अविवेक का परिचय देना है। अच्छा चलो थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि पितर सूक्ष्म शरीर धारण कर आते भी हैं, परन्तु यह तो बताओ बिना स्थूल शरीर के वे भोजन कर कैसे लेते हैं, क्या सूक्ष्म शरीर से भोजन कर सकना सम्भव है? और जब ब्राह्मणों के साथ भोजन करते हैं तो पहले पितर खाते हैं या पहले ब्राह्मण खाते हैं? यदि ब्राह्मण पहले खाते हैं तो पितर झूठा खाते हैं। यदि दोनों मिलकर खाते हैं तो एक दूसरे का झूठा खाते हैं। झूठा खाना स्वास्थय और सिद्धान्त दोनों दृष्टियों से निन्दनीय है। अच्छा साल भर में १५ दिन ही क्यों निश्चित हैं? क्या साढ़े ग्यारह महीने उन्हें भूख नहीं लगती? क्या १५ दिन के भोजन से ही साल भर तक तृप्त बने रहते हैं? क्या ऐसा हो सकता है तो किसी मनुष्य को १५ दिन खिलाकर साल भर तक बिना भोजन के जीवित रहता हुआ दिखाओ। और १५ दिन भी कहाँ? श्राद्ध के १५ दिन निश्चित हैं, इसमें भी केवल एक दिन पितरों के परिवार वाले निकालते हैं। दूसरे यदि ब्राह्मणों को खिलाने से मृतक पितरों को भोजन पहुँच जाता है, तो भोजन करने पर ब्राह्मणों का पेट क्यों भर जाता है, ब्राह्मणों को तो भोजन करने पर भी भूखा ही रहना चाहिए। जब भोजन उन्होंने पितरों का पहुँचा दिया तो फिर उनका पेट कहाँ भरा? श्राद्ध खाने वाले ब्राह्मणों से जरा यह पूछ लिया करो कि जिन पितरों को भोजन पहुँचाना है, वे हैं कहाँ? साथ ही वह रोगी हैं या तन्दुरुस्त हैं? यदि वह रोगी ही हो तो फिर उन्हें हलुआ, पूड़ी और खीर से क्या प्रयोजन है? उन्हें कड़वी दवा और मूँग की दाल का पानी चाहिए। भारी भोजन से तो वह और अधिक रोगी हो जायेंगे। जब किसी को यह पता नहीं कि मृत्यु के पश्चात् पितर आत्मा किस योनि में गया है और किस अवस्था में है, तो खीर, पूड़ी ब्राह्मणों द्वारा भेजने का मतलब ही क्या है?
यदि श्राद्ध के दिनों में किसी का पितर किसी योनि से स्वयं ही सूक्ष्म शरीर से भोजन करने आवे तो जिस योनि से आयेगा उसकी तो मृत्यु हो जानी चाहिए।थोड़ा और विचारों कि एक आत्मा तत्व-ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो गया, उसे संसार के भोजन की क्या चिन्ता? एक आत्मा कर्म वश शेर या भेड़िया बना हुआ है, दूसरा विष्ठा या नाली का कीड़ा बना हुआ है, इन प्राणियों का हलुआ और पूड़ी से क्या काम चलेगा? प्रत्येक प्राणी का अपना भिन्न-२ प्रकार का स्वादिष्ट भोजन है। सबका मनुष्य जैसा भोजन नहीं होता।

देखो! यदि कोई आदमी किसी आदमी के पास पत्र डाल रहा हो, परन्तु उसका पता न जानता हो, सारा मजबून लिखकर बिना पते का पत्र ‘लैटरबक्स’ में छोड़ दे तो क्या वह उसकी अक्लमन्दी होगी और क्या वह पत्र उस आदमी के पास पहुँच भी जायेगा? कदापि नहीं। फिर बिना पता निशान के ब्राह्मणों को खिलाने से पितरों के पास कैसे भोजन पहुँच जायेगा? यह तो कोरा अन्धविश्वास है। एक व्यक्ति को खिलाने से अगर दूसरे व्यक्ति के पास भोजन पहुँच जाता तो परदेश जाने वाले को भोजन बाँधकर ले जाने की आवश्यकता ही क्या थी?
घर पर ब्राह्मणों को खिला दिया जाता परदेश जाने वाले का पेट स्वतः भर जाता। अतएव मृतक का श्राद्ध करना बिल्कुल व्यर्थ और अपने आपको धोखा देना है।

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