आओ समझें: हिन्दी अक्षरों का वैज्ञानिक स्वरूप-3
‘छ’
छकार को हमारे भाषाविदों ने छाया, आच्छादान, छत्र, परिच्छेद, अखण्ड, छेद आदि का समानार्थक माना है। छत, छाता, छवि, छत्वर: (इसी छत्वर से छप्पर शब्द बना है क्योंकि छत्वर: का एक अर्थ पर्णशाला भी है) छिपना, छिपाना, इत्यादि शब्द छ को छाया आदि का समानार्थक सिद्घ करते हैं। इसकी आकृति में बाहरी ओर से पीठ सी फेरी गयी है और भीतर की ओर घुण्डी दी गयी है, जिससे कुछ छुपाव सा, रहस्य सा दिखाई देता है। इसलिए छल, छद्म, छेद, छिद्र इत्यादि शब्द इसकी आकृति की बनावट के रहस्य को और गहराते हैं। परिच्छेद टुकड़े टुकड़े करने का, अंश का, खण्ड का प्रतीक है। अत: छित्वर-छितराना, टुकड़े टुकड़े कर देना, छिदिर-कुल्हाड़ी-टुकड़े टुकड़े करने वाला हथियार, छिद्कम-इंद्र का वज्र, छिदुर-काटने वाला, छिद्र, छिन्न-भिन्न, छेदनम्, छेद-काटना, छुर-काटना, छुर शब्द से ही छुरा और छुरी शब्द बने हैं ये शब्द परिच्छेद अंश का खण्ड जैसे अर्थों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। छिपना, छिपाना, छुप-छुपकर चलना इन जैसे शब्दों में भी एक रहस्य है। यह रहस्य इन शब्दों के साथ तभी आया है जब छकार इन शब्दों में जुड़ा है। पीछे, पूंछ आदि शब्द भी इसी ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं।
‘ज’
‘ज’ भी हमारी हिंदी वर्णमाला का अति महत्वपूर्ण वर्ण है। इसके अर्थ पैदा होना, वंशज, अवतीर्ण, उद्भूत आदि अत्रिनेत्रज, कुलज, जलज, छत्रियज, अण्डज, उदभिज आदि के अर्थों सहित पिता (जनक) उत्पत्ति जन्म, विष, विजेता (विजयी) कांति प्रभा, विष्णु आदि का भी समानार्थक है। इसकी आकृति अकार के मूल स्तंभ से बाहर को है। जैसे कि धरती से कोई बीज अंकुरित होकर बाहर को उसकी सुई=नोंक आती है, तो लोग उसे जन्मना (जमना शब्द रूढ़ है) कहते हैं। अत: अंकुरण या जन्म लेने का इससे सुंदर संकेत कोई नही हो सकता। आप घर में चने उपजाएं या गेंहू आदि उपजाएं, उनके अंकुरण की आकृति बीज से निकलने पर ‘ज’ की आकृति सी बनाती है। इसलिए यह आकृति बड़ी स्वाभाविक, प्राकृतिक और वैज्ञानिक है। पिता जनक इसीलिए हैं कि उससे हम जन्म ले रहे हैं। प्रत्येक प्राणी अपनी मां से नही बल्कि पहले पिता से जन्म लेता है। क्योंकि जीवात्मा वनस्पतियों के माध्यम से पिता के वीर्य में सर्वप्रथम आता है और फिर माता के गर्भ में जाता है। इसीलिए गर्भाधान क्रिया को वीर्यसेचन भी कहा जाता है।
अब तनिक कुछ शब्दों पर विचार करें। हम भतीजा, भतीजी, भांजा, भांजी शब्द बोलते हैं। जो भ्रातृ अर्थात भाई और बहन के लड़के लड़कियों के लिए प्रयुक्त होते हैं। यह भतीजा व भतीजी शब्द सीधे भ्रातृज व भ्रातृजा शब्द से बने हैं जिनका अर्थ भाई से उत्पन्न है। इसी प्रकार कुलज, जलज, वंशज, पूर्वज, आत्मज, आत्मजा: अण्डज, उदभिज आदि अन्य शब्दों को देखें इनसे सिद्घ होता है कि जकार जन्म के अर्थों को ही प्रकट करता है। जीवन, जगत, जंतु, जनन, जननी, जगदंबिका, जगदंबा, जन, जनक, जनता, जनित्री, जनु (जन्म) जप (बार बार किसी एक ही शब्द को उच्चारना-उसे जन्म देना) जय (जन्म के योग्य-अर्थात जन्म उसी का सार्थक है जिसकी जीत हो) जाति योनि जातकर्म, जातक, जामा (मुझसे जन्मी-पुत्री) जमाता (दामाद) आदि जकार के एक से ही अर्थों को निकालने वाले शब्द हैं।
पहले जन्म है तो पश्चात में मृत्यु भी है। इसलिए जरा (वृद्घावस्था) जरन्त: (वृद्घ व्यक्ति) जर्जर, जीर्ण, जरित, जर्जरित, जरठ (अधिक आयु वाला) आदि इसी अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। जबकि जल (स्फूर्तिहीन) ठंडा, शीतल और जड़ जमा हुआ, ठंडा, शीतल जैसे शब्द उत्पन्न होने के बाद की एक विशेष अवस्था को स्पष्टï करते हैं। इस प्रकार जकार एक बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ण है।
‘झ’
‘झ’ हिंदी वर्णमाला का अगला अक्षर है। झंझावात, बृहस्पति, कोई ध्वनि (जैसे झनझन….) जैसे अर्थों का वाचक है यह अक्षर। यह अक्षर जकार का विपरीतार्थक है, अर्थात यदि जकार जनम का वाचक है तो इसे विद्वानों ने विनाश मृत्यु का वाचक या ध्वन्यार्थक माना है। ‘झ’ की आकृति में बांयी ओर ‘इ’ की आकृति है, जो कि गति की प्रतीक है लेकिन उसे अकार के मूल स्तंभ से निकलने वाली रेखा मानो बाहर को धकिया रही है। इसीलिए इसकी आकृति में झंझावात सा दीखता है, परंतु बृहस्पति बहुत बड़ा ग्रह भी है, जो कि एक देवता माना जाता है। अत: इस अक्षर से अर्थ उसके समानार्थक भी माने गये हैं। झुण्ड-झाड़ी, झंखाड़, झग-जल्दी से तुरंत (इसी से झगड़ा शब्द बना है) झट, झंकृत, झंकार, झंडा-हवा पानी, तूफान, आंधी की आवाज, झरना, आदि इसी प्रकार की ध्वनि देने वाले शब्द हैं। तूफान आदि की ध्वनि में झंकार होती है जो कि डरावनी से होती है। तूफान की ध्वनि प्रबलता को प्रकट करती है, इसलिए झकार में प्रबलता भी है।
‘ञ’ ‘ट’ और ‘ठ’
‘ञ’ को पढ़ाते समय भी खाली कहा जाता है। इसका कारण ये है कि जितनी भी ‘ञ’ ड, ण, ‘ञ’ हैं, इन सबमें से किसी से कोई शब्द नही बनता। किंतु इनकी सहायता से शब्दों की शोभा अवश्य बढ़ती है। संस्कृत में विद्वानों की व्यवस्था है कि ‘ण’ में परिवर्तित हो जाए।
इस ‘ञ’ के अर्थ बैल, शुक्र, ऐड़ी-बैंडी चाल तथा संगीत माने गये हैं।
‘ट’ का अर्थ बांधना, कसना, जकडऩा, छीलना, खुरचना छिद्र करना, सुराख करना, इत्यादि माना गया है। पंडित रघुनंदन शर्मा इसके विषय में बताते हैं कि टकार मध्यम, साधारण आदि अर्थों में आता है। साधारण दशा संशय, संदिग्ध, असमंजस, भावयुक्त होती है, अत: टकार निर्बल अर्थ में भी लिया जाता है। निर्बलता ही संकुचित करती है, इसलिए संकोच या दबाव अर्थ में भी इसका उपयोग हुआ है, निर्बलता और दबाव प्राप्त करने की इच्छा कभी किसी की नही होती। इससे इसका अर्थ इच्छा विरूद्घ भी हुआ है। तात्पर्य ये है कि टकार इन्हीं उपर्युक्त नम्र और निर्बल भावों का द्योतक है, जो इससे बने हुए कष्ट, रूष्ट, भ्रष्ट आदि शब्दों से पाए जाते हैं।
टंकण, टंकण शाला (टकसाल) टंकार, टंकिका-कुल्हाड़ी, टीका-व्याख्या (खुरचने के से अर्थ में) टिप्पणी टंग-खुर्पा ऐसी ही ध्वनि करने वाले शब्द हैं।
‘ठ’ से कोई अधिक शब्द नही बनते हैं। लेकिन इसमें हकार जुडऩे से यह टकार का विपरीतार्थक अक्षर है। इसलिए निर्बलता या नम्रता न होकर उनका विपरीत भाव होता है। कठिनता व हठ जैसे शब्द भी यही बताते हैं। बर्तन बनाने वाला ठठेरा और ठक्कुर-ठाकुर (एक सम्मान जनक उपाधिधारी व्यक्ति) टकार के विपरीतार्थक अर्थ निष्पन्न करने वाले शब्द हैं। ठकार में एक अपना अलग वैभव सा है, कई लोग भारत के देहात में किसी व्यक्ति के गर्बीले स्वभाव को देखकर उसे उसकी ठाकुरशाही कहते हैं। यह ठाकुरशाही शब्द ठकार के कारण एक अलग वैभव उत्पन्न कर रहा है। जो उस व्यक्ति के व्यकितत्व को अन्य लोगों से कुछ अलग करता है।
‘ड’ ‘ढ’
डा. रघुनंदन शर्मा इस अक्षर के विषय में विवेचना करते हुए लिखते हैं-डकार क्रियार्थ में लिया गया है। बिना दो पदार्थों के संयोग के कोई क्रिया नही होती। संयोग भौतिक होता है, इसलिए यह संयोगात्मक क्रिया प्रकृति अर्थ में घटती है। यही कारण है डकार जड़, पिण्ड, रूण्ड, मुण्ड आदि शब्दों में आकर अपनी जड़ता का परिचय दे रहा है। यही अर्थ इसके रूप से प्रकट होता है। क्रिया का चित्र इससे अच्छा और कोई नही हो सकता और न जड़ता का भाव ही इससे अधिक अन्य चित्र के द्वारा प्रकट किया जा सकता है। इसके गठन से ही पता चलता है कि इसमें जरा भी नम्रता, सजीवता नही है।
यही कारण है कि डोम-एक घृणित जाति वर्ग, डमर-डमरू डिम्ब-कोलाहल (इसी से दंगा शब्द बना है) अण्डा, गोला, डामर, हुंडदंगी, असभ्य (अंग्रेजी का डफर शब्द इसी से बना है) डकैत आदि शब्द इसी प्रकार की ध्वनि निकालते हैं।
ढकार, डकार का विपरीतार्थक है। इसमें निश्चलता और सजीवता मानी गयी है। आरूढ़, रूढि़ आदि शब्द इसी प्रकार की ध्वनि निकाल रहे हैं। ढालम-ढाल, ढोल, ढुण्ढि-गणेश का विशेषण यही अर्थ दे रहे हैं।
‘ण’ के विषय में हम पूर्व में ही उल्लेख कर चुके हैं। उसे यहां पुन: उद्घृत करने की आवश्यकता नही है।
‘त’
‘तकार’ हिंदी वर्णमाला का एक प्रमुख अक्षर है। इसे तलभाग, नीचे, इधर, आधार, इस पार, किनारा, अंतिम स्थान जैसे अर्थों में प्रयुक्त किया माना जाता है। इस अक्षर के उच्चारण में जिव्हा को दांतों की चौखट से टकराना पड़ता है। इसका उच्चारण दांतों के तलभाग से माना गया है। यदि आप किसी व्यक्ति को नीचे जाने का संकेत करें तो इससे उत्तम कोई संकेत नही हो सकता, जबकि ऊपर के लिए इससे अच्छा कोई संकेत नही हो सकता। इसीलिए तकार से तल, नीचे इधर, इत्यादि ध्वन्यार्थक शब्द बनते हैं। तकार का रूप कुछ ऐसा है जैसे किसी चीज को आपने ऊपर से ढक दिया, उसे अंतिम रूप दे दिया। इसलिए तकार का अर्थ मृत्यु से भी लिया जाता है। शब्द जगत लें, इसमें ज जन्म का, ग गति का और त मृत्यु का (अंतिम स्थान) प्रतीक है। इस प्रकार जगत का अर्थ हुआ जन्म से मृत्यु पर्यंत जो गति कर रहा है वही जगत है। तट, तालाब, तक्षक (पाताल लोक का एक सर्प) तडि़त बिजली की कौंध, तत्व-(आधार के अर्थ में) तथ्य, तंत्र, तथा तप, तरल, तरणि (नीचे आती सूर्य की किरणें) तर्क, आदि शब्द तकार के ऊपरिलिखित अर्थों की ओर ही हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। ईश्वर से भक्त तू का संबोधन बड़े श्रद्घाभाव से करता हुआ कहता है-तू मेरी प्रार्थना सुनता क्यों नही? यहां तू-त्वम ईश्वर के जगदाधार स्वरूप की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट कर रहा है। इसीलिए उसे जगदीश्वर भी कहा जाता है।
तुषार-कोहरा=नीचे ही घुटता है, तकार प्रयुक्त होता है तो एक सीमा रेखा सी खींच दी जाती है। जैसे त्रैमासिक, त्रिदोष, त्रिफला, त्रिलोक, त्रिगुण, त्रिशूल, त्रिविकार, त्रिभुज, तृतीया इत्यादि।
त्वचा शब्द भी शरीर के बाहर एक किनारे पर मिलती है। त्रुटि का अर्थ भी काटना, तोडऩा, फाडऩा हानि इत्यादि माना गया है, यानि त्रुटि होते ही कोई वस्तु अपरंपार नही रह जाती अपितु उसका पार पा लिया जाता है।
‘थ’
थकार से हिंदी वर्णमाला में अधिक शब्द नही बनते। परंतु इसके उपरांत भी यह वर्ण महत्वपूर्ण है। इसकी आकृति अकार के आधार स्तंभ को सहारा देती सी लगती है। जैसे किसी छत को स्तंभ आधार प्रदान करते हैं और छज्जे आदि के नीचे ऐसी आकृति किसी स्तंभ की हो जाती है। किसी को आधार देने या किसी का सहारा बनने के लिए यह आकृति बड़ी वैज्ञानिक है। मानो आपने किसी गिरते हुए को अपने हाथ से सहारा देकर ऊपर ही रोक लिया है। इसलिए पं. रघुनंदन शर्मा जी ने थकार को ठहरना आधेय, ऊपर, उस पार जैसे शब्दों का ध्वन्यार्थक माना है। स्तंभ शब्द से ही थमला शब्द बन गया है। थम का अर्थ रक्षा करना है, ठहरना है, आधेय बन जाना है। थूकने में भी पहले व्यक्ति बलगम को ऊपर की ओर खींचता है, तब फेंकता है। इसीलिए थूकने में थुत्कार की एक ध्वनि होती है। रथ शब्द में र-रमण और थ आधेय का ध्वन्यार्थक है। सारथि, महारथी जैसे शब्दों को इस आधार पर समझा जा सकता है। स्वार्थ का अर्थ भी यही है कि जो व्यक्ति स्व में ठहर गया है, संकुचित और संकीर्ण हो गया है, जिसकी सोच में तंग दिली आ गयी है। परमार्थ का भाव समाप्त हो गया है। ‘स्’ जहां ‘थ’ से पहले लाया जाता है वहीं वहीं ‘स्थ’ बनकर शब्द के अर्थ में ठहराव उत्पन्न कर देता है। जैसे अवस्था, अवस्थित, स्थिर, स्थित, स्थिति, परिस्थिति, व्यवस्था, स्वस्थ, अस्वस्थ इत्यादि।
‘द’
दकार हिंदी वर्णमाला का एक बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ण है। इसकी आकृति में अकार के आधार स्तंभ को बांयी ओर को मोड़कर बीच में खुला छोड़ दिया गया है। देने के अर्थों को स्पष्ट करने के लिए ही दकार के दरवाजे खुले छोड़े गये हैं। इस वर्ण का देना एक महत्वपूर्ण अर्थ है। पं. रघुनंदन जी ने इसका अर्थ गति देना, कम, करना किया है। वह लिखते हैं-त वर्ग में दकार स्थानांतर होने की वजह से गति का अर्थ रखता है, और दा धातु का देना अर्थ होता है, जो स्थानांतरण, परिवर्तन आदि का वाचक है। क्योंकि जब कोई पदार्थ किसी को दिया जाता है तो उसका स्थानांतरण अवश्य होता है-गति अवश्य होती है, क्रिया अवश्य होती है। परिवर्तन नूतनत्व और जन्म अवश्य होता है। इसलिए दकार का अर्थ स्थानांतरण अर्थात दान किया गया है। यही भाव इसके रूप में भी दिखलाया गया है।
वास्तव में दकार के स्वरूप में अपूर्णता है। पूर्णता का वाचक ह्र है, परंतु दकार में यह टूट गया है। अकार के मूल स्तंभ में क्षति सी हुई है, इस प्रकार हो गया है। स्वाभाविक है कि देने से कुछ न कुछ भंडार में या कोष में न्यूनता तो आती ही है।
द और प्रजापति का उपदेश
सामान्यत: अपने गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार संसार के मनुष्य देव, मनुष्य और असुर तीन प्रकार के होते हैं। इनमें देव मानव के पूर्ण विकास और आत्मिक उत्थान की अवस्था का नाम है तो मानव उसकी मध्यावस्था है और असुर उसकी निम्नावस्था है। तीनों को ही उपनिषद् में प्रजापति की संतान कहा गया है। यहां प्रजापति का अर्थ ईश्वर से है। एक बार प्रजापति की ये तीनों संतानें उसके पास गयीं और ब्रह्मïचर्य व्रत लिया। व्रत चर्या पूर्ण हुई तो एक दिन प्रजापति से दीक्षान्तोपदेश देने की याचना करने लगे। सर्वप्रथम यह याचना देवों ने की इसलिए प्रजापति ने उनसे कहा ‘द’ और ये कहकर मौन हो गये। देवता ‘द’ का अर्थ समझ गये और पीछे हट गये। उन्होंने जान लिया कि ‘द’ का अर्थ उनके लिए इंद्रिय दमन से है। अपने पास उपलब्ध ऐश्वर्य और सामथ्र्य के कारण कहीं कहीं स्वयं को स्खलित नही होने देना है, अपितु निरंतर अपनी इंद्रियों पर संयम रखना है और अपनी साधना की उच्चता और पवित्रता को निरंतर बनाये रखना है।
तब देवों के पश्चात मनुष्यों की बारी आयी। तब उनसे भी प्रजापति ‘द’ कहकर शांत हो गये। प्रजापति ने तब मनुष्यों से पूछा कि क्या वे ‘द’ का अर्थ जान गये हैं, तो उन्होंने कहा कि हां आपने हमसे दान करने के लिए कहा है। मनुष्यों के लिए यह समझना ही श्रेयस्कर था। इसके पश्चात असुर आए। उनके लिए भी प्रजापति ने ‘द’ का ही उपदेश किया और शांत हो गये। तब उनसे प्रजापति ने ‘द’ का अर्थ जानना चाहा कि क्या तुम ‘द’ का अभिप्राय समझ गये तो उन्होंने कहा कि महाराज आपने हमारे कठोर स्वभाव के दृष्टिगत हमें प्राणिमात्र के प्रति दया भाव रखने का उपदेश दिया है।
कथा समाप्त करते हुए उपनिष्त्कार (वृहदारण्यकोपनिषद 5/2) ऋषि कहते हैं कि देखो प्रजापति का यह उपदेश हमें मेघगर्जना में भी सुनाई पड़ता है। जब बादल गरजते हैं तो उनसे द-द-द की ध्वनि होती है। यह दैवीय घोष भी संसारी लोगों को दमन, दान, दया करने की प्रेरणा करता है। कहता है कि ऐ संसार के तीनों प्रकार के लोगों! यदि अपना और संसार का कल्याण चाहते हो तो प्रजापति के ‘द’ का अर्थ अपने अपने गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार समझो।
इस कथा का यद्यपि यहां उल्लेख बहुत आवश्यक नही था लेकिन हमने फिर भी उपनिषद की इस आख्यायिका को दिया है, जिससे दकार के महत्व पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। यह वर्ण इतना महत्वपूर्ण है कि देव, मनुष्य और असुर तीनों इससे अपने जीवन में गति, स्थानांतरण या परिवर्तन ला सकते हैं। महर्षि ने संकेत रूप में उन्हें द से देना सिखाया। गति दी। उपदेश पाकर भी रूकना नही है अपितु चलते ही रहना है। दकार का हमारे लिए यही उपदेश है। शिक्षा हमको दक्ष-योग्य बनाती है। हम दक्ष होकर दीक्षित होकर संसार को दक्ष बनाने का उद्यम करते हैं। इस प्रकार गति का एक चक्र बनता है और हम देखते हैं कि यह संपूर्ण संसार उसी चक्र में गति करने लगता है। संसार के प्रत्येक कार्य व्यवहार में एक चक्राकार गति है। प्रत्येक ग्रह, उपग्रह भी गोलाकार गति में घूम रहा है, मनुष्य स्वयं भी ऐसी ही एक गोलाकार गति में घूम रहा है। यह गति हमें एक व्यवस्था प्रदान कर रही है, उस व्यवस्था में द, द, द की ध्वनि हो रही है। जो लगातार हमसे कह रही है कि दमन, दान और दया का ध्यान रखो और इस गति में कहीं टूटन न आ जाए, इस बात के लिए सचेष्ट रहते हुए सहभागी बनो। दण्ड भी कर्मफल व्यवस्था के अंतर्गत एक चक्र की ओर ही हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। दक्षिणा, दान, दण्डक, दत्तक, दधि, ददनम-उपहार, दधीचि, दमन, दंपत्ति, दर्शन, दल, दहन, दाता, दीपक, दीप्त, दीप्ति, दीर्घ, दीर्घा, दुख (सुख का भाव क्षतिग्रस्त हुआ है) दुष्ट-दूषित अर्थात क्षतिग्रस्त इत्यादि शब्द दकार के उपरोक्त अर्थों को ही प्रकट करते हैं।
ज्ञान में पतन होता है, इसका विकास नही
ज्ञान अपने आप में पूर्ण है। सृष्टि प्रारंभ में वेदज्ञान स्वयं ईश्वर ने प्रदान किया। ईश्वर स्वयं में पूर्ण है। इसलिए उनका दिया हुआ ज्ञान भी पूर्ण है। ज्ञान के विषय में दोष ये भी है कि ये पीढ़ी दर पीढ़ी निरंतर अक्षुण्य रूप में प्रवाहमान नही रह पाता। मनुष्य का लक्ष्य तो पूर्ण ज्ञानी बनकर मोक्ष पाना है, परंतु वह कामचलाऊ ज्ञान प्राप्त करने में ही अपना लाभ देखता है। प्रमाद, आलस्य और संसार के अनेकों विघ्न उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित करते हैं। धीरे धीरे इस प्रक्रिया का परिणाम ये आता है कि ज्ञान में पतन होने लगता है, अथवा विकृति आने लगती है। बहुत से लोग ज्ञान, विज्ञान में पीछे रह जाते हैं और धीरे धीरे समाज की वो अवस्था आ जाती है कि जब अधिकांश लोग अज्ञानी हो जाते हैं। महर्षि दयानंद ने वेद को सब सत्य विद्याओं की पुस्तक कहकर संसार का ध्यान वेदों की ओर अर्थात ज्ञान के अक्षय स्रोत की ओर मोडऩे का प्रशंसनीय कार्य किया। जिसका अच्छा परिणाम भी आया, परंतु उनकी मृत्यु के कुछ काल उपरांत पुन: ज्ञान के निरंतर प्रवाहमान रहने की प्रक्रिया बाधित होने लगी। स्वतंत्रता के पश्चात भारत में छद्म धर्मनिरपेक्षता की नीति ने भारत के ज्ञान को अत्यधिक बाधित किया। फलस्वरूप जिस अनुपात में कार्य होना चाहिए था उस अनुपात में नही हुआ।
जब ज्ञान की धारा में पतन होता है तो कभी कभी उसका सफाई अभियान भी चलता है, तब ज्ञान धारा की पैंदी में पड़े बहुत से ज्ञान मोती सफाई अभियान में संलिप्त लोगों को मिल जाते हैं, तो वे उन्हें अपने नाम से प्रचारित और प्रसारित करने का प्रयास करते हैं और संसार को अपना बताकर उन्हें देते हैं। जबकि सच ये ही होता है कि हमारे पास जितना भी ज्ञान होता है वह उधारा होता है। हम उसे किसी से लेते हैं और उसे अपने ढंग से लोगों के समक्ष परोसते हैं। यह स्थिति मेरे साथ भी है और आपके साथ भी है, सबके साथ है। परंतु अपने अनुयायी, शिष्य और सेवक बनाने का मोह व्यक्ति संवरण नही कर पाता।
इसलिए गलती कर बैठता है और कह देता है कि गुरूत्वाकर्षण बल की खोज मैंने कीे है, विमान मैंने बनाया है, योग की खोज मैंने की है। ऐसा कहने वाले सफाई अभियान वाले लोग थे, उन्हें वेदज्ञान धारा की पैंदी में कुछ मोती मिले और बाहर आकर कह दिया कि देखो मैं ये क्या लाया?
ऐसे ही भाषा के साथ भी अत्याचार हुआ है। पं. भगवद्दत्त कहते हैं कि समाज की स्थिति पद परिवर्तन का कारण बनती है। कभी तैल का अर्थ तिलों का तेल था। अब तिल सरसों, मंूगफली, नारियल सबके तेलों के लिए इस शब्द का प्रयोग होता है। इसी प्रकार कुशा लाने वाले को कभी कुशल कहा जाता था अब सब काम में चतुर को कुशल कहा जाता है, इसी प्रकार प्रवीण कभी वीणा बजाने में उत्कृष्ट को कहा जाता था अब सब काम में चतुर को प्रवीण कहा जाता है।
अंग्रेजी का शब्द Muslin मलमल का वाचक है। यह मलमल मसूलीपटटम के बंदर स्थान से भारत से इंग्लैंड जाता था। मसूलीपट्टम का रूपांतर Muslin और पुन:मलमल बना। संस्कृत का कर्पूर शब्द फारस तक पहुंचा और वहां इसे काफूर कहा गया। संस्कृत में शब्द बुद्घ है, जो कि फारसी में जाकर बुत कहा गया, उनसे बुत शब्द प्रस्तर मूर्ति के लिए वहां बना।
ये शब्द भाषा के विषय में हमें बता रहे हैं कि भाषा ज्ञान में भी पतन होता है। मूल शब्द स्थान परिवर्तन करने पर रूप परिवर्तन कर लेता है, उससे दूसरी, तीसरी, चौथी….भाषाएं अर्थात बोलियां बनती चली जाती हैं। आज अपनी संस्कृत भाषा और वेद संस्कृति के उत्थान के लिए भागीरथ प्रयास की आवश्यकता है। हमारे पास सब कुछ है, हमें तो केवल ढूंढऩा है। क्योंकि जो हमारे पास है, वह है कहां? हम उसे रखकर भूल गये हैं या हमें भुला दिया गया है। इस षडयंत्र का भंडाफोड़ करना है, और हम देखेंगे कि हमारे हाथ में फिर ‘सोने की चिडिय़ा होगी। दकार हमें देने के लिए प्रेरित कर रहा है, क्योंकि हमारी संस्कृति, प्रकृति और प्रवृत्ति देने की ही है। लेने की नही है। इसीलिए भारत में 33 करोड़ देवताओं (देने वालों) की कल्पना की गयी है। ये 33 करोड़ देव कभी आर्यावत्र्त की कुल जनसंख्या थी, उसी के वाचक हैं। यहां छोडऩे छोडऩे (त्याग में देने में) में आनंद मिलता है, जोडऩे जोडऩे में निधन (जब जाते हैं तो धन के बिना जाते हैं, जिसे जीवन ध्येय मानते रहे वह यहीं रह गया, साथ नही गया) इसलिए ऐसा मानने वालों का निधन होता है और हमारा स्वर्गवास होता है-मोक्षधाम की प्राप्ति। मोक्ष ‘द’ में है, छोडऩे में है, जोडऩे में नही ।
पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों के मध्य सोच का यह अंतर भाषा की वैज्ञानिकता के कारण ही तो है। दकार आपके यहां मिलता है तो आप हीरों के व्यापारी हो और दूसरे देशों में या संप्रदायों में या उनकी भाषाओं में यह शब्द नही मिलता इसलिए वह निधन के शिकार हो रहे हैं। अपने हीरे को विनम्र भाव से स्वीकारो, संवारो, सुधारो, सहेजो और अपने वैज्ञानिक ऋषियों के प्रति आभारी होकर इस हीरे के प्रकाश से भूमंडल को अलोकित करने के लिए संकल्पित हो उठो।
मेरा यही प्रयोजन है आपका और अपने महान ऋषियों के मध्य संवाद स्थापित कराने का। आप मुझे बीच में झेल रहे हो, इसके लिए आपका आभारी हूं।
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