संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा: छल प्रपंचों की कथा-भाग (1)
मुझे बड़ा अटपटा लगता है जब कोई व्यक्ति-ये कहता है कि भारत वर्ष 1300 वर्ष पराधीन रहा। कोई इस काल को एक हजार वर्ष कहता है, तो कोई नौ सौ या आठ सौ वर्ष कहता है। जब इसी बात को कोई नेता, कोई बुद्घिजीवी, प्रवचनकार या उपदेशक कहता है तो मेरी यह अटपटाहट छंटपटाहट में बदल जाती है, और जब कोई इतिहासकार इसी प्रकार की मिथ्या बातें करता है तो मन क्षोभ से भर जाता है, जबकि इन सारे घपलेबाजों की इन घपलेबाजियों को रटे हुआ कोई विद्यार्थी जब ये बातें मेरे सामने दोहराता है तो भारत के भविष्य को लेकर मेरा मन पीड़ा से कराह उठता है। पर जब कोई कहे कि भारत की पराधीनता का काल पराधीनता का नही अपितु स्वाधीनता के संघर्ष का काल है तो मेरा मुरझाया मन उसी प्रकार खिलने लगता है जैसे गरमी से झुलसी किसान की फसल को पानी मिल जाने पर वह फसल खिल उठती है। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां सुनी सुनाई बातों पर अधिक चिंतन किया जाता है, अपेक्षाकृत स्वयं अध्ययन करने के यहां का सारा इतिहास विदेशियों ने लिख मारा। अब उसी इतिहास का शवोच्छेदन करने वाले भारतीय इतिहासकारों की एक लंबी सूची है, जो ‘अशोक महान’ को छलिया और ‘अकबर छलिया’ को महान बताने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाते रहते हैं। उन्हें पीएच.डी. या डी.लिट. की उपाधि भी तो ऐसी ही अतार्किक और अनर्गल धारणाओं को स्थापित करने पर मिलती है। भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप भी तभी जिंदा रहता माना जाता है जब राम और कृष्ण को कोसा जाए या रामायण और महाभारत को तो काल्पनिक माना जाए और मुस्लिम सुल्तानों के पापों को भारत के लिए पुण्य सिद्घ करने का प्रयास किया जाए। पश्चिमी बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने तो इस प्रकार की एक राजाज्ञा ही जारी कर दी थी कि मुस्लिम शासकों के कार्यों को भारतीयों के हित में सिद्घ किया जाए।
बस यही कारण है कि भारत को गुलाम बताने वाले गुलामी के उस कथित काल को गुलामी के विरूद्घ संघर्ष का काल नही बता पाते, अन्यथा विश्व इतिहास के परिप्रेक्ष्य में यदि भारतीय इतिहास के इस सबसे बड़े झूठ का अवलोकन किया जाए तो पता चलता है कि यदि एक सौ वर्ष तक भी कोई देश या जाति मन से गुलाम होकर किसी विदेशी जाति या शासक के अधीन हो गयी तो वह कभी फिर इतिहास में अपनी अस्मिता और निजता को स्थापित नही कर पायी। यूनान, मिश्र, रोम, अफगानिस्तान, ईरान, ईराक आदि क्या अपने-अपने गौरवमयी अतीत को बचा पाए? नही, और डंके की चोट कहा जा सकता है कि नही बचा पाए। पर भारत की बात अलग है। इसने सौ वर्ष की बात तो छोड़िये दस वर्ष भी किसी विदेशी शासक या शासन को निष्कंटक होकर राज्य नही करने दिया। कहीं न कहीं कोई न कोई उपद्रव, विद्रोह या बगावत विदेशी शासक या शासन के प्रति हर काल में निरंतर बनी रही। हर ‘अकबर’ के लिए कोई न कोई ‘महाराणा प्रताप’ और हर ‘औरंगजेब’ के लिए कोई न कोई ‘शिवाजी’ कहीं न कहीं चुनौती बना रहा। ऐसी जीवट और जीवंत इतिहास की साक्षी हिंदू जाति के लिए एक हजार वर्ष तक गुलाम बताया जाना उसका अपमान करना नही तो क्या है? जो जीवंत जाति है उसे मृत सिद्घ करना-कितना बड़ा राष्ट्रघात है।? ऐसे राष्ट्रघात के लिए लेखनी दण्ड का प्राविधान करते हुए भी कांपती है।
जिन लोगों ने हिंदू जाति को कायर कहते हुए हजार वर्ष तक उसके गुलाम रहने की घोषणा का महापाप किया उन्हें लाला लाजपतराय जी ने अपनी पुस्तक ‘छत्रपति शिवाजी’ की प्रस्तावना में इन शब्दों में लताड़ा है-‘जो जाति अपने पतन के काल में भी राजा कर्ण, गोरा और बादल, महाराणा सांगा और प्रताप, जयमल और फत्ता, दुर्गादास और शिवाजी, गुरू अर्जुन, गुरू तेगबहादुर, गुरू गोविंद सिंह और हरि सिंह नलवा जैसे हजारों शूरवीरों को उत्पन्न कर सकती है, उस आर्य हिंदू जाति को हम कायर कैसे मान लें? जिस देश की स्त्रियों ने आरंभ से आज तक श्रेष्ठ उदाहरणों को पेश किया है, जहां सैकड़ों स्त्रियों ने अपने हाथों से अपने भाईयों, पतियों और पुत्रों की कमर में शस्त्र बांधे और उनको युद्घ में भेजा, जिस देश की अनेक स्त्रियों ने स्वयं पुरूषों का वेश धारण कर अपने धर्म व जाति की रक्षा के लिए युद्घ क्षेत्र में लड़ कर सफलता पायी, अपनी आंखों से एक बूंद भी आंसू नही गिराया, जिन्होंने अपने पातिव्रत्य धर्म की रक्षा के लिए दहकती प्रचण्ड अग्नि में प्रवेश किया, वह जाति यदि कायर है तो संसार की कोई भी जाति वीर कहलाने का दावा नही कर सकती।’
राष्ट्रवाद और संस्कृति के संस्थापक हम थे
जिस जाति की महिलाएं अपने पतियों को, अपने भाईयों को और अपने पुत्रों को कमर में शस्त्र बांधकर संस्कृति विध्वंसक और राष्ट्र विनाशक शत्रुओं से लड़ने के लिए भेजती रहीं और उनके बलिदानों को अपने लिए गर्व और गौरव का विषय मानती रहीं वो नारियां साधारण महिलाएं नही थीं, बल्कि वो ऐसी महान नारियां थीं, जिन्होंने चूड़ियों की खनक को तलवारों की झनक से कभी भी अधिक मूल्यवान नही समझा। चूड़ियां भी राष्ट्रधर्म के जागरण में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं-ये केवल भारतीय नारियों की वीरगाथाओं से ही सिद्घ किया जा सकता है। यह सच है कि भारत की नारियों के लिए प्रेमगाथाएं उतनी महत्व पूर्ण नही रही जितनी ज्ञान गाथाएं और वीरगाथाएं प्रेरक रही हैं। यहां ब्रहन्नलाओं ने प्रेमगाथाओं के माध्यम से इस देश को ‘हीर-रांझे’ का देश बनाने का चाहे जितना प्रयास किया हो, परंतु हीर रांझे की कहानी कभी भारतीय नारी का आदर्श नही हो सकता। ‘हीर-रांझे’ को भारतीय नारी का आदर्श बनाने का प्रयास झूठा है और हमारे अनुसंधानों की भटकती दिशा का प्रतीक है, अन्यथा अनुसंधान तो उन हजारों नारियों पर होने चाहिए थे जिन्होंने जौहर रचाए या अपने पतियों, भाईयों और पुत्रों के बलिदानों पर भी देश धर्म और जाति के हित में आंसू नही बहाए। कहां हैं ऐसी मांऐं ऐसी बहनें-या ऐसी पत्नियां विश्व इतिहास के पन्नों पर? कहीं नही मिलेंगी, सिवाय भारत के। तब हम अपने अतीत का जश्न मनाएं या उस पर आंसू बहायें?
हमने राष्ट्रवाद और संस्कृति का विकास किया, उनकी स्थापना की और उनके लिए काम करना प्रारंभ किया। बस इसीलिए यहां की नारियों ने विश्व की सर्वोत्कृष्टï आर्य संस्कृति के नाशकों को विश्व संस्कृति का नाशक समझा। उन भारतीय नारियों का चिंतन तो देखिए कि उन्होंने भारतीय आर्य संस्कृति के विध्वंसकों को विश्व संस्कृति का विनाशक समझा। इसलिए अपने सुहाग की चिंता नही की। इस अर्थ में तो भारत की नारियों का यह उपकार भारत पर नही, अपितु विश्व पर भी है-क्योंकि उन्होंने विश्व संस्कृति को उजड़ने से बचाने के लिए अपने आंसुओं को चुपचाप पिया। ऐसी वीर जाति के लिए ही इकबाल ने लिखा था-
यूनान, मिश्र, रोमां सब मिट गये जहां से,
बाकी मगर है अब तक नामोनिशां हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।।
क्या बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी?-अनुसंधान तो वीरों और वीरांगनाओं के उन कृत्यों पर होना चाहिए था जिनके कारण हमारी हस्ती मिटी नही। यह रहस्य कब तक रहेगा कि हमारी हस्ती मिटती क्यों नहीं-हमारी जीवंतता सदा ही बनी क्यों रही?
कासिम के रूप में मुस्लिमों के आरंभिक आक्रमण
भारत के विषय में एक ऐसी धारणा सफलतापूर्वक स्थापित की गयी है कि जो इसकी केन्द्रीय सत्ता का किसी भी प्रकार से अधिपति हो गया इतिहास को उसी की परिक्रमा करने के लिए विवश किया गया। फिर चाहे उस बलात रूप से अधिपति बने शासक का शासन क्षेत्र कितना ही छोटा क्यों न हो? यहां तक कि पेंशन भोगी मुगल सम्राटों तक को भी यहां का सम्राट मनवाने के लिए इतिहास के साथ क्रूर उपहास किया गया है। जिन लोगों का आदेश दिल्ली के लालकिले के भीतर तक ही सीमित होकर रह गया, और भी सच कहें तो जिनका आदेश उनके अधीनस्थ लोग भी नही मान रहे थे, वो भी भारत के सम्राट कहे जाते हैं और जिन मराठों का शासनादेश उसी समय महाराष्ट्र से उड़ीसा, दिल्ली, राजस्थान, बिहार के कुछ क्षेत्रों और दक्षिणी भारत के सुदूर प्रदेशों तक मजबूती के साथ चलता था, उन्हें देश में आतंकी, विद्रोही या लुटेरे कहा गया। यही स्थिति पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के विशाल राज्य की थी। इनका उल्लेख हम आगे करेंगे।
मुस्लिमों के द्वारा पहला आक्रमण भारत पर 712 ई. में मौहम्मद बिन कासिम के द्वारा किया गया। यह मुस्लिम आक्रांता भारत के सिंध प्रांत से टकराया और थोड़ा आगे बढ़ा। यह लुटेरा था जो अपने खलीफा को खुश करने के लिए यहां से धन लूटकर ले जाने के उद्देश्य से आया था। इसे सिंध के शासक दाहर की बेटियों सूर्य प्रभा और चंद्रप्रभा ने अपने बौद्घिक कौशल से इसी के खलीफा के द्वारा मरवा दिया था। वह कहानी यदि लिखी जाएगी तो मालूम होगा कि भारत की नारियों ने संस्कृति नाशकों का नाश कराने में पहले दिन से ही कितना प्रशंसनीय योगदान दिया था। पर यहां उसे लिखना प्रासंगिक नही है। यहां तो केवल ये देखना है कि जो इतिहासकार ऐसी धारणा बनाते हैं कि भारत को मौहम्मद बिन कासिम ने गुलाम किया था, उसी के आक्रमण से ही भारत गुलामी की ओर बढ़ गया था, वो कितने गलत हैं? मौहम्मद बिन कासिम ने भारत पर कोई राज्य स्थापित नही किया। वह तूफान की भांति आया और चला गया। लुटेरों से आर्थिक हानि हो सकती है, लेकिन उनसे राजनीतिक हानि नही होती है। क्योंकि मौहम्मद बिन कासिम अपने खलीफा के एजेण्ट के रूप में भारत आया था और उसे अपने लूट के माल में से शरीयती व्यवस्था के अनुसार अपने खलीफा को एक निश्चित धनराशि देनी थी। बात साफ है कि मौहम्मद बिन कासिम के आक्रमण का उद्देश्य लूट था उसका उद्देश्य राजनीतिक नही था, जैसे बाद में इसी तर्ज पर यहां ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी आयी थी, तो उसका उद्देश्य भी आर्थिक लाभ अर्जित करना ही था। उसके भारत आगमन का उद्देश्य राजनीतिक नही था।
हमें मौहम्मद बिन कासिम को इतिहास के एक अमर पुरूष के रूप में पढ़ाया जाता है और राजा दाहर को एक पराजित शासक के रूप में-जबकि राजा की दोनों बेटियों का तो कहीं उल्लेख भी नही आता। इतिहास का गला घोंट दिया जाता है और तथ्यों को बदल दिया जाता है।
712 की इस घटना को चाटुकार इतिहास कारों ने कुछ इस प्रकार महिमा मंडित किया है, जैसे कि यहीं से अरब और भारत के सांस्कृतिक संबंध स्थापित हुए और उन संबंधों के आधार पर इस्लाम और भारत की संस्कृति का मिलन हुआ। जिससे ‘गंगा-जमुनी’ संस्कृति का विकास हुआ। कितना बड़ा झूठ है ये? लज्जा नही आती ऐसी बात करने वालों को। जो आक्रांता सिंध से आगे महत्वपूर्ण बढ़त ही नही ले पाया, वह क्या सांस्कृतिक संबंध बना गया? सिंध भारत का एक प्रांत था-वह भारत नही था, और यहां तो महत्वपूर्ण बात ये है कि सिंध ने भी कासिम के आक्रमण को हृदय से स्वीकार नही किया था। एक दिन के लिए भी प्रतिकार बंद नही हुआ था। सांस्कृतिक संबंध तो तभी स्थापित होते हैं, जब आक्रमण स्वीकार कर लिया जाए और शांतिपूर्ण सह अस्तित्व का भाव अंगीकार हो जाए। परंतु यहां ऐसी कोई संभावना नही थी, क्योंकि कासिम को लुटेरे और हत्यारे आक्रांता के रूप में भारतीय पहली बार देख रहे थे। इससे पहले भारत में युद्घ के नियमों का पालन हुआ करता था और जनसाधारण से या सार्वजनिक स्थलों से कोई छेड़छाड़ या हिंसक रणनीति नही अपनायी जाती थी। जिन जिन क्षेत्रों में कासिम पहुंचा उन उन क्षेत्रों में उसने लूटमार और मारकाट का जो खेल खेला वह भारतीयों के लिए पहला अनुभव था। इसलिए सांस्कृतिक संबंध कहां से और कैसे स्थापित हो सकते थे? साथ ही यह बात भी विचारणीय है कि भारत में तलवार अब से पूर्व कभी भी जनसंहार के लिए प्रयुक्त नही की गयी थी। वह योद्घाओं का आभूषण थी और सदा ही आतंकियों के विरूद्घ ही प्रयोग की जाती रही थी-अब तो वह पहली बार जनसंहार करती देखी जा रही थी। इसलिए उसके प्रति भारतीयों में घृणा थी और उसे प्रयोग करने वालों के प्रति आक्रोश था। जहां घृणा और आक्रोश होते हैं वहां कभी भी विपरीत लोगों का मिलन संभव नही होता है और जब तक मिलन नही, तब तक सांस्कृतिक संबंध कैसे स्थापित मान लिए जाएं? इसलिए कासिम के आक्रमण को इतने संदर्भों तक ही लिया जाना चाहिए। उसके आक्रमण का अन्यथा महिमामण्डन करना स्वयं अपने राष्ट्रीय चरितनायकों और राष्ट्रीय चरित्र के साथ अन्याय करना होगा।
वास्तविक चरितनायक भुला दिये गये
जिस समय मौहम्मद बिन कासिम ने भारत पर आक्रमण किया था उस समय के वास्तविक चरितनायकों और राष्ट्रनायकों को भुला दिया गया है। समकालीन इतिहास को कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है, कि एक लुटेरा नायक दीखता है और नायक खलनायक दीखते हैं, या राष्ट्रीय पटल से गायब दीखते हैं। सातवीं सदी के प्रारंभ में जब अरब में 610ई. में इस्लाम की स्थापना हुई थी तो उस समय भारत पर सम्राट हर्षवर्धन (606-647 ई.) का शासन था। सम्राट हर्षवर्धन के समय में सिंध पर भी हर्ष का ही शासन था। परंतु हर्ष की मृत्यु के उपरांत भारत की केन्द्रीय सत्ता दुर्बल पड़ गयी। राजनीतिक अव्यवस्था फेेल गयी। इसी राजनैतिक अव्यवस्था के कारण हर्ष की मृत्यु के 65 वर्ष पश्चात मौहम्मद बिन कासिम ने भारत के सीमावर्ती राज्य सिंध पर हमला किया।
मौहम्मद बिन कासिम के लौटते ही सिंध में स्वतंत्रता के लिए विद्रोह फैल गये और राजा दाहर के बेटे जयसिंह ने पुन: सिंध का राज्य प्राप्त कर लिया। यद्यपि जयसिंह कालांतर में इस्लामिक हमलावरों से दुखी होकर मुस्लिम बन गया था, परंतु अपनी भूल की अनुभूति होते ही वह फिर से स्वधर्म में लौट आया। बाद में वह मुस्लिमों के द्वारा ही मार दिया गया। अत: राजा दाहर के सैनिक और उसकी दो बेटियां स्वतंत्रता के युद्घ के पहले स्मारक हैं तो राजा जयसिंह और उसके वीर सैनिक इस युद्घ के दूसरे स्मारक हैं।
मौहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के पश्चात अरबों की ओर से आक्रमण परंपरा को सिंध में राजा जयसिंह के स्थान पर चुने गये मुस्लिम शासक जुनैद ने आगे बढ़ाया। जुनैद व उसके सेनापति मर्मद, मण्डल, बैलमान, दहनज, बरबस और मलीबा को आक्रांत करते हुए उज्जैन तक आगे बढ़ गये थे। यहां मर्मद मरूदेश के लिए, बरबस भड़ौंच के लिए मलिवा मालवा के लिए, बैलमान बल्लमंडल (गुर्जर राज्यों का संघ) के लिए कहा गया है। इतिहास हमें बताता है कि अरबों ने चाहे कितनी ही दूर तक धावा बोल दिया था, परंतु वे यहां अपने प्रभुत्व को अधिक देर तक स्थापित नही कर पाए। अवन्ति के गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट, लाट देश (दक्षिणी गुजरात) के चालुक्य राजा अवनिजनाश्रम, पुलकेशीराज ने उन्हें परास्त कर भगा दिया। लुटेरों को अपनाया नही गया, अपितु उनके साथ वही व्यवहार किया गया जिसके वह पात्र थे। स्वतंत्रता का तीसरा दैदीप्यमान स्मारक है इन स्तवनीय राजाओं का ये स्तवनीय कृत्य।
इसी स्तवनीय कृत्य में नांदीपुरी के गुर्जर राजा जयभट्ट चतुर्थ ने भी संघर्ष में सम्मिलित होकर सहयोग दिया था। चित्तौड़ के राणा वंश के वीर प्रतापी शासक बप्पा रावल का गौरवपूर्ण शासन भी इसी समय फलफूल रहा था, उनका म्लेच्छों को मार भगाने में उल्लेखनीय रूप से सहयोग मिला था। अरब के इतिहास अभिलेखों से ही ज्ञात होता है कि जयसिंह की मृत्यु के पश्चात जिस सिंध पर मुसलमानों ने अपना शासक जुनैद बैठाया वह चौथाई सदी तक ही मुस्लिम आधिपत्य में रहा और देश के चरितनायकों के प्रयासों से उन्हें यहां से शीघ्र ही भाग जाना पड़ा। इस बात की साक्षी अरब के इतिहास अभिलेखों से ही मिलती है। अब प्रश्न है कि अरब सिंध से भागे क्यों? इसलिए भागे कि यहां के लोगों ने स्वतंत्रता के अपहरण के पहले प्रयास के विरूद्घ पहले दिन से ही तलवार उठा ली, और लग गये स्वतंत्रता के स्मारक पर स्मारक बनाने। भारतीयों की स्मारक लिखने की यह अद्भुत परंपरा आगे भी चलती रही। रूकी नही, झुकी नहीं।
उत्तर भारत में कश्मीर के प्रतापी शासक ललितादित्य और कन्नौज के शासक यशोवर्मा ने सिंध की सेनाओं का सामना किया और जुनैद को आगे बढ़ने से रोक कर स्वतंत्रता का एक शानदार स्मारक उन्होंने भी खड़ा कर दिया। सत्यकेतु विद्यालंकार ने बड़े गर्व से लिखा है:-‘अरबों की जिन सेनाओं ने पूर्वी रोमन साम्राज्य और पर्शियन साम्राज्य की शक्ति को धूल में मिला दिया था, ईजिप्ट और उत्तरी अफ्रीका को जीतकर यूरोप में स्पेन की भी जिन्होंने विजय कर ली थी और मध्य एशिया के बौद्घ राज्य भी जिनके सामने नही टिक सके थे, वे भारत को जीत सकने में असमर्थ रहीं।’ भारत के इतिहास का अध्ययन करते हुए इस तथ्य को आंखों से ओझल नही करना चाहिए। भारत की सैन्यशक्ति इस काल में अरबों की तुलना में उत्कृष्ट थी, यह सर्वथा स्पष्ट है। इसलिए बड़ी निराशा के साथ मौलाना हाली ने भी लिखा था-
‘वो दीने हजाजी का बेबाक बेड़ा,
जो कुलजम में झिझका,
न जेहु में अटका,
मुकाबिल हुआ कोई खतरा न जिसका,
किये थे पार जिसने सातों समंदर,
वो डूबा दहाने में गंगा के आकर।’
सच भी ये ही है कि दीने हजाजी का बेबाक बेड़ा गंगा के दहाने में आकर डूब गया। फिर भी झूठा पढ़ने और जूठन खाने की किसी की प्रवृत्ति ही बन हो गयी हो तो क्या कहा जा सकता है?
यदि अपनी सर्वोत्कृष्ट वैदिक संस्कृति के प्रति असीम अनुराग और वेदों के राष्ट्रधर्म के प्रति गहन निष्ठा का भाव हमारे तत्कालीन हिंदू शासकों में नही होता तो यह निश्चित था कि वे मुश्लिम आक्रांताओं के सामने सहजता से घुटने टेक देते। परंतु यह सौभाग्य केवल और केवल भारतीयों का है जिनकी सर्वाधिक प्राचीन पुस्तक ऋग्वेद में ही ‘स्वराज्य’ के गीत गाने की बात कही गयी है। युगों से स्वराज्य की उद्घोषिका इसी संस्कृति का पान करते करते हम सदा ही इतने आत्मबल के धनी रहे कि स्वराज्य के स्थान पर पराधीनता को देश के शासकों ने कभी अपनाया नही। यह हमारी पारस्परिक ईर्ष्या थी जिसने हममें फूट डाली और विदेशी शक्तियां यहां कालांतर में देर तक टिके रहने में सफल हो गयी थीं। फिर भी जिस काल की बात हम कर रहे हैं, उसमें स्वतंत्रता के जितने स्मारक गढ़े गये उन्होंने अपनी इतनी तीव्र चमक फेेलायी कि देर तक मुस्लिम आक्रांताओं की आंखें चुंधियायीं रहीं और हमारी ओर देखने का उनका साहस नही हुआ। कौन झाड़ेगा इन स्मारकों की धूल को? और कौन चढ़ाएगा इन पर गरिमा के इक फूल को?
झूठे चाटुकारों से और लेखनी को बेचकर व आत्मा को गिरवी रखकर लिखने वाले इतिहासकारों से स्वतंत्रता के अमर सैनानियों के ये पावन स्मारक यही प्रश्न कर रहे हैं। समय के साथ हम इन प्रश्नों को जितना उपेक्षित और अनदेखा करते जा रहे हैं-उतना ही बड़ा प्रश्नचिन्ह लगता जा रहा है।
हमारी नई पीढ़ी इतिहास के झूठ पढ़ते-पढ़ते उन्हें ही सच मान रही है। तथ्यों के आधार पर आज जब उनके समक्ष वस्तु स्थिति को अक्षरश: स्पष्ट किया जाता है तो उन्हें विश्वास नही होता कि जो उन्हें बताया जा रहा वही सच है। हमें पहले अपनी प्राचीन वैदिक संस्कृति से काटा गया, इसलिए स्वराज्य हमसे बहुत दूर का शब्द हो गया। जब हमें अंग्रेजों के उपकार बताए गये और इतिहास की पुस्तकों में लिखा गया कि स्वतंत्रता के बारे में हमें पहले पहल अंग्रेजों से अथवा यूरोपीयन जातियों से ज्ञान हुआ तो हमने स्वराज्य और स्वतंत्रता के इन्हीं ‘झूठे शहंशाहों को’ मंदिर की मूर्ति समझकर पूजना आरंभ कर दिया। इसलिए वैदिक चिंतन का अनुसंधान का क्रम समाप्त हो गया। आज हमारी युवा पीढ़ी भारत को समझने के लिए भारत के प्राण-वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, स्मृति आदि की ओर न देखकर विदेशियों की ओर देख रही है और इसीलिए विश्व के सबसे अधिक सांस्कृतिक रूप से समृद्घ भारत वर्ष को कंगाल और यूरोप को इस क्षेत्र में सर्वाधिक समृद्घ समझने की भूल कर रही है। इस भूल के मूल में दुष्चिंतन का शूल है, जिसे खोजा जाना आवश्यक है। हमने अपने गौरवमयी अतीत के गौरवमयी स्मारकों को कभी गंगाजल से पवित्र करने का या धोने का प्रयास नही किया, इसलिए हम अपवित्रता के उपासक बन बैठे हैं। इतिहास के छलछदमों और झूठों को पूजने का क्रम बढ़ता ही जा रहा है। हमारा दुर्भाग्य है कि स्वतंत्रता के पश्चात इस देश की शिक्षा नीति इस देश के अतीत के स्मारकों को उत्कीर्ण कर उन्हें पूज्यनीय बनाने के लिए लागू नही की गयी अपितु उन्हें अपमानित और तिरस्कृत करने के लिए लागू की गयी। वर्तमान पीढ़ी उसी अपमानित और तिरस्कृत करने की भावना से लिखे गये इतिहास को पढ़कर अपने अतीत के बारे में जो कुछ समझ पा रही है, वह उसके लिए निराशाजनक है।
यह लेख इतिहास के ऐसे पूज्यनीय स्मारकों को खोजने की दिशा में उठाया गया पहला कदम है। इसी श्रंखला में आगे कुछ अन्य स्मारकों के पूज्यनीय स्वरूप को स्थापित करने का प्रयास करेंगे। यह श्रंखला किसी के भावों को या विचारों को अपमानित करने के लिए नही लिखी जा रही है, अपितु अपने राष्ट्र के गौरवपूर्ण अतीत को गौरवपूर्ण ढंग से स्थापित करने के हर भारतीय के राष्ट्रीय दायित्व के निर्वाह को अपना दायित्व समझकर लिखी जा रही है। अच्छे विचार और तार्किक तथ्य सादर आमंत्रित हैं, सदा स्वागत के योग्य है।
मुख्य संपादक, उगता भारत