वीर सावरकर का एक प्रेरक प्रसंग

भारत को स्वाधीनता किसी ने थाली में परोस कर नही प्रदान की, अपितु भारत की स्वाधीनता की किश्ती शहीदों के शोणित के दरिया पर तैरती हुई आयी थी। करीब सात लाख लोगों की कुर्बानी से भारत की धरती लाल हुई थी। सदियों की गुलामी के बाद, तरह तरह की यातनाएं और जुल्मों को सहने के बाद पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस का वह स्वर्णिम प्रभात आया था जिसमें सूर्य की लाल पीली किरणों में भारत मां के अनेक वीरों और वीरांगनाओं के बलिदान की अमर कहानी थी, एक रवानी थी, एक जज्बा था, एक जोश था, जो राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के केसरिया रंग से प्रतिध्वनित हो रहा था। देश का हर नागरिक ही नही, अपितु भारत के भूतल का कण कण उन शहीदों की शहादत के लिए हृदय से कृतज्ञ था, जिनके बलिदान की कहानी लालकिले की प्राचीर से फहराता हुआ तिरंगा आज भी अपनी मूक भाषा में कहता है-भारत के लोगो तुम मेरे केसरिया रंग को मात्र केसरिया रंग न समझना, अपितु मैं भारत मां की कोख से उत्पन्न उन शहीदों का शोणित हूं, जिनकी रूधिर कणिकाओं से मेरे भारत की धरती लाल हो गयी थी। जिन्हें अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी भारत की अस्मिता थी।
भारत मां की अस्मिता के रक्षक एक नही, अपितु अनेक हुए हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास स्वतंत्रता सैनानियों के अदम्य साहस और शौर्य से भरा पड़ा है। जिसे पढ़कर कलेजा मुंह को आता है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
अंतर्मन विदीर्ण हो उठता है, अंतर से आवाज आती है-हे प्रभु! हमारे पूर्वजों ने इस स्वाधीनता के लिए कैसे कैसे कष्ट सहे थे? इसी श्रंखला में प्रस्तुत है महान क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर के जीवन का एक प्रेरक प्रसंग।
अण्डमान निकोबार की सेल्यूलर जेल (काला पानी) में भारत मां का शेर महान स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर अंग्रेजों की यातनाओं के बीच ऐसे पिल रहा था जैसे गन्ना कोल्हू में पिलता है। अंग्रेजों की क्रूरता की कहानी आज भी रोंगटे खड़े कर देती है। वीर सावरकर दस वर्ष तक इस जेल में लकड़ी के कोल्हू में बैल की तरह जुड़कर तेल निकालते रहे। यह अंग्रेजों के जुल्म, दरिंदगी, बेरहमी और बर्बरता की पराकाष्ठा थी। कल्पना कीजिए कि ऐसी हृदयविदारक विकट स्थिति में वे कितने मानसिक तनाव से गुजरे होंगे? कितने भय, चिंता और अवसाद में जीवित रहे होंगे? उनकी राष्ट्रभक्ति कत्र्तव्य परायणता और तपश्चर्या पूर्ण जीवन वास्तव में आने वाली पीढिय़ों के लिए अनुकरणीय और प्रेरणादायक है।
जब भूख प्यास और थकान से निढाल होकर वीर सावरकर थोड़ा सुस्ताने लगते तो अंग्रेज जेलर इतना हृदयहीन था कि कोड़े का प्रहार करता था। फलस्वरूप उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। उन्होंने अपनी पत्नी को एक पत्र लिखा-हे प्रिय! अब मुझे लगता है कि मेरे जीवन का अंत सन्निकट है। यदि मेरी मृत्यु हो जाए तो रोना मत। मेरा प्यारा भारतवर्ष एक बहुत बड़ा सरोवर है। जिसमें ज्ञानी, ध्यानी और बलिदानी महापुरूषों के रूप में, अनेकों कमल के पुष्प खिले हैं। जो भारत माता के स्वाधीनता के मंदिर में अपने अपने क्रम से समर्पित होते चले जा रहे हैं, अर्थात भारत की स्वाधीनता के लिए प्राणोत्सर्ग कर रहे हैं। यदि इस स्वाधीनता के मंदिर में समर्पित होने की मेरी बारी आ जाए तो मन में गर्व करना कि भारत मां ने मुझे भी उन कमलों की श्रेणी में स्वीकार कर लिया है, जो मुझसे पहले भारत मां के स्वाधीनता के मंदिर में प्राणोत्सर्ग कर गये।


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