जीवन अपने आप में ही एक कला है। इसे आप एक साथ विभिन्न कोणों पर खेलते हैं। मानो आप बालीवॉल के मैदान में अपने पाले में अकेले खड़े हैं और दूसरी ओर से आपके लिए बराबर गेंदें आ रहीं हैं। यदि आप उन्हें गिरने नहीं दे रहे हैं तो आप सफल खिलाडी हैं और यदि आपकी गेंद बार-बार आपके पाले में आकर गिर रही है तो आप उसी अनुपात में असफल हैं। दूसरे पाले में आपके सगे संबंधी हैं माता है, पिता हैं, पुत्र हैं, पति या पत्नी हंै पुत्री है, भाई है बहन है, भतीजे हैं, भतीजियां हैं, मित्र हैं संबंधी हैं। सभी अपने अपने लिये खेल रहे हैं और अपनी गेंद को आपकी ओर अपनी अपनी अपनी अपेक्षाओं के साथ फेंक रहे हैं। ये गेंद आपकी ओर से जितनी अधिक देर तक गिरने नहीं दी जाएगी। दर्शक उतनी ही देर तक तालियां बजाएंगे। जैसे ही किसी मोड़ पर गिर जाएगी तुरंत सबको मायूस कर देगी। इसलिए बड़ी सावधानी से खेलने की आवश्यकता है। आप जितनी सावधानी से खेलेंगे आपकी कला उतनी ही निखार पर आएगी। पुराने समय में लोग अपने घर में होने वाले समारोहों में अपने हर संबंधी को शरीक करने में ही खुशी अनुभव करते थे इसलिए खुशी के मौकों पर लोग अपने सगे संबंधियों के लिए शिकवों को दूर करना अपना महती दायित्व समझा करते थे। वो माना करते थे कि यदि किसी भी सगे संबंधी ने मेरे समारोह का बहिष्कार किया तो मेरा यज्ञ असफल हो जाएगा। अपूर्ण रह जाएगा। इसलिए यज्ञ की पूर्णता के लिए तथा जीवन की सफलता के लिए लोग अपनों की रूष्टïता का कारण पूछ कर उसे दूर करते थे और प्यार से उन्हें साथ लेकर चलते थे। जीवन की यह कला बडी ही जीवन प्रद तथा आनंद प्रद थी, आज हमें घुन लग गया है। मर्यादाएं टूट रही हैं लोग अपनों से ही दूरी बना रहे हैं और उस पर भी खुश होते हैं लेकिन हमारे भीतर एक गलत बात ये होती है कि हम अपनों से अपेक्षाएं बहुत पालते हैं जबकि अपने लोग समय आने पर आंख दिखाते चले जाते हैं। इनकी आंख दिखाने की प्रवृति को हम पहले से ही मानकर नहीं चलते कि ये जब कुछ दूरी तक जाकर रहेंगे फिर समय आने पर केवल आंख दिखाने का ही काम करेंगे। यदि हम उस सच को पहले से ही स्वीकार कर लें तो हमें समय आने पर डंडा खाने नहीं पडेंगे। ये स्थिति कुछ कुछ वैसी ही है जैसी कि उस कुत्ते की हो जाती है जो किसी बैलगाड़ी की छाया में चलते चलते उस चलती हुई बैलगाड़ी से टपकते मीठे रस को चूसता चला जाता है और जब मालिक को उसका ज्ञान होता है तो वह उसकी पीठ पर डंडा मारता है उधर दूसरे गांव के कुत्ते उसका पीछा करते हैं और वह पीट पीटकर वापस घर आकर अपनी दुखती देह को चाटता है। यदि अपेक्षाएं पालेंगे, सोचोगे कि तेरे अच्छे कार्य का प्रतिकार अपनों से अच्छाई में मिले और आप इस अच्छाई के टपकते रस को चूसते चूसते गाडी के नीचे चलेंगे तो डंडा खाकर घर बैठेंगे अत: जीने की यह अच्छी कला नहीं है। जीने का अच्छी कला है पर दूसरी है कभी किसी पुलिस अधिकारी को देखना, वह अपने क्षेत्र में घुसे किसी वीअीईपी को सम्मान अपने क्षेत्र जैसे ही उसकी सीमाऐें समाप्त होती हैँ वह जयहिंद का अभिवादन कर रवापस शान के साथ अपने गंतव्य को लौट आता है। अपने जीवन में उपस्थित हुए कर्तव्य को अपने लिए वीआईपी गानों उसे अपने पूर्ण मनोयोग अपनी पूर्ण क्षमताओं के साथ निभाओ पूर्ण करो। पूर्ण करते ही ईश्वर के लिए धन्यवाद करो और बिना किसी के धन्यवाद की अपेक्षा वापस शांत मन से अपने घर लौट आपको आनंद मिलेगा टपकते रस के पीछे मत भागो। 

कर्तव्य रस पीकर आनंद की नींद की आगोश में चले जाओ। जीवन जीने की सर्वोत्तम कला ये ही है जिस आनंद की खोज आप कर रहे हैं वह आपको कर्तव्य रस में ही मिलेगा जो आपको ईश भक्ति के लिए प्रेरित करेगा और आप परमानंद के निकट होते चले जाओगे। 

संसार में रिश्तों का कोलाहल और उनके घायल करते व्यंजन या कार्य व्यवहार आपको घायल तो कर सकता है। पर आपको जख्मों को भरेगा नहीं पर अपनी घायलावस्था को अपने लिए वरदान समझो क्योंकि इससे आप संसार से छूटकर आप केन्द्रित होते हैं जो कि सीमा तक विदा करता है।

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