पिछले अंक में हमने एक लेख गाय के विषय में दिया था। जिसमें लेखक खुशहालचंद आर्य ने गाय के उपलों से हवन करने की बात कही है। इस पर कुछ लोगों की प्रतिक्रिया आयी कि ऐसा करने से प्रदूषण अधिक होगा। अत: इसलिए उपलों से हवन नहीं किया जाना चाहिए। साथ ही ऐसे लेख प्रकाशित भी नहीं किये जाने चाहिए। हमारा मानना है कि समाचार पत्र किसी भी एक विचारधारा को लेकर उसके प्रति मताग्रही नहीं हो सकता। साथ ही किसी लेख के छपने से संपादक का उससे सहमत होना भी आवश्यक नहीं है। लेखक के विचार अपने होते हैं और उन लेखों में उभरने वाले विचारों को पकडक़र स्वस्थ्य चिंतन एवं चर्चा चलनी चाहिए।

महर्षि दयानंद ने कहा है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोडऩे में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। इसका अभिप्राय ये है कि जो बात कहीं से नई आ रही है उसका परीक्षण सत्य के अनुसंधान की दृष्टिï से आवश्यक हो जाता है। आर्य विचारधारा का एक व्यक्ति एक वैज्ञानिक होता है। अनुसंधान प्रेमी होता है। इसलिए उससे उम्मीद की जाती है कि वह नई बात को पकड़े और उसका परीक्षण करे। ताकि सत्य को ग्रहण किया जा सके। यदि उपलों में हवन से आम की समिधाओं की अपेक्षा अधिक प्रदूषण होता है तो उसे छोड़ दिया जाए, क्योंकि यदि सत्य इसी प्रकार प्रतिष्ठित होता है तो इसी प्रकार उसे प्रतिष्ठित होने दिया जाए। कभी भी किसी विचार के प्रति पूर्वाग्रह और दुराग्रह रखकर नहीं चलना चाहिए। नये विचार हमें नई खोजों के लिए प्रेरित करते हैं और इसलिए हमें उन्हें इसी रूप में ग्रहण करना चाहिए। विद्वता के दम्भ में जीना पाखण्ड होता है।

महर्षि दयानंद से किसी ने कहा कि आप तो परम विद्वान हैं, तो ऋषि ने पलटकर कहा कि यदि मैं महर्षि, कणाद, कपिल, जैमिनी, गौतम आदि के समय में हुआ होता तो विद्वानों के चरणों की धूल के समान भी नहीं होता। महर्षि का अपने विषय में इतना सरल दृष्टिï कोण हमें अपने गिरेबान में झांकने के लिए प्रेरित करता है कि हम तो कुछ भी नहीं हैं और हम कुछ भी नहीं होकर भी विद्वत्ता के दम्भ में जीने का पाखण्ड आखिर क्यों कर रहे हैं?

महर्षि दयानंद ने विश्व को सत्यार्थ प्रकाश नामक जो अमर ग्रंथ दिया उसका सत्यार्थ प्रकाश अनंत है।

 यह ग्रंथ तो झलकी मात्र है, सत्यार्थ का पूर्ण प्रकाश तो सत्यार्थ के गहन चिंतन एवं मनन की पूरी प्रक्रिया से ही किया जाना संभव है। इसलिए किसी भी बात के लिए तुरंत आलोचना करना उचित नहीं है। अपितु उस नई बात के सत्यार्थ को परीक्षित करने और अपनाने या ना अपनाने की आवश्यकता है। ज्ञान को किन्हीं सीमाओं में बांधा नहीं जा सकता। यदि आपने ज्ञान को बांधने की गलती की तो ज्ञान हमारे लिए घातक भी हो सकता है। इसलिए गाय के उपलों से हवन करने की लेखक की बात पर अनावश्यक आलोचना ना करके उसकी जांच पड़ताल हो, यदि उचित जान पड़े तो समाज के लिए उसे स्वीकृत किया जाए अन्यथा छोड़ दिया जाये। हम उस विचार से नातो असहमत हैं और ना ही सहमत हैं वैज्ञानिक विद्वत मंडल के निष्कर्ष के साथ हमारी सहमति रहेगी।

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