खाप ने माना पुरूष वर्ग दरिंदा है

बागपत जिले की एक खाप पंचायत की ओर से फरमान जारी किया गया है कि प्रेम विवाह करने वाले युवक युवती गांव में नहीं रह सकते, घर के बाहर निकलने पर युवतियों को डालनी होगी चुन्नी, चालीस वर्ष से कम की महिलाएं नहीं जा सकेंगी बाजार, दहेज लेने देने वालों पर पंचायत करेगी कार्यवाही। पंचायत के इस फरमान पर उत्तर प्रदेश के कैबिनेट मंत्री आजम खां का कहना है कि पंचायत का यह फेेसला फरमान नही बल्कि कुछ लोगों की राय हो सकती है। अपने समाज की बेहतरी के लिए कुछ लोग एक साथ बैठकर राय मशविरा करते हैं तो इसमें गलत क्या है? जबकि गृहमंत्री पी. चिदंबरम का कहना है कि इस तरह के फरमानों का लोकतांत्रिक समाज में कोई स्थान नहीं है। मैं नहीं समझता कि कोई यह कह सकता है कि कैसे कपड़े पहनें या कैसे रहें, यह पूरी तरह अलोकतांत्रिक है।एक दैनिक समाचार पत्र ने इस फरमान पर अपनी हैडलाइन बनाई है – यह कैसा समाज। यदि इस पंचायती व्यवस्था की गहराई में जाकर देखा जाए तो स्पष्टï होता है कि पंचायत में बैठे पुरूष समाज ने खुद अपने लिये यह स्वीकार कर लिया कि पुरूष समाज दरिंदा हो चुका है, और उससे महिला अब सुरक्षित नही है। पुरूष ने माना है कि समाज में नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है और पतन की इस अवस्था में यदि बदमाशों के द्वारा गुवाहाटी में एक नाबालिग बच्ची को बारह दरिंदे सरेआम अपमानित कर सकते हैं तो पुरूष समाज अपनी नैतिकता और मर्यादा भूल गया है। महिलाओं के लिए इस खाप पंचायत ने कोई फरमान या विशेष आदेश जारी नहीं किया है बल्कि उसने महिला समाज को अपने से सचेत करते हुए मात्र निर्देश दिया है।

पंचायत के निर्णय पर हमारे द्वारा यह प्रश्न उठाना कि यह कैसा समाज उचित जान नहीं पड़ता। क्योंकि समाज का मतलब किसी के अधिकारों का हनन करना नहीं है, समाज एक ऐसी धारा है जो सबको जीने का अधिकार प्रदान करती है। इसके द्वारा व्यक्ति के अधिकारों का सम्मान होता है, उल्लंघन नहीं। पंचायत में जो लोग बैठे उन्होंने जितने अनुपात में समाज की मान मर्यादा और नैतिकता को बचाए और बनाये रखने के लिए प्रयास किया उतने तक यह निर्णय सामाजिक है। यदि इस पंचायत ने खुद को दरिंदा अपरोक्ष रूप में माना है तो इसका भी कोई अर्थ है, और अर्थ यही है कि पंचायत पुरूष वर्ग को भी मर्यादित संतुलित करना चाहती है। हालांकि पंचायत ने इस विषय में कोई निर्णय नहीं लिया, तो इस सीमा तक पंचायत का यह निर्णय असामाजिक और पक्षपात पूर्ण है। महिलाएं घर से न निकलें, यह समस्या का समाधान नही है, बल्कि यह तो समस्या को और उलझा देना है। पुरूष वर्ग महिलाओं के प्रति कैसे भद्र, विनम्र, और शालीन बने इस विषय पर निर्णय देना और लागू करवाना कहीं ज्यादा अच्छा होता। प्रेमविवाह आदि के विषय में भी यही बात लागू होती है। समाज में संकट नैतिक मूल्यों का है, युवा वर्ग ने स्वतंत्रता का सही अर्थ समझा नही और न ही उसे समझाया गया है। गृहमंत्री पी. चिदंबरम का यह कहना कि इस तरह के फरमानों का लोकतांत्रिक समाज में कोई स्थान नही है और मैं नही समझता है कि कोई यह कह सकता है कि कैसे कपड़े पहनें और कैसे रहें-बेतुका है। समाज की व्यवस्था घर में माता-पिता विद्यालय में शिक्षक-शिक्षिका और समाज में बड़े बुजुर्ग सभ्य लोग मिलकर बनाते हैं। ये सब हमें बताते हैं कि हमें कैसे कपड़े पहनने हैं और कैसे रहना है। यदि समाज की सारी व्यवस्था को लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर हमारे गृहमंत्री चुनौती दे रहे हैं, तो समझो वह अराजकता की स्थिति को लाना चाहते हैं। जहां तक आजम खां का के वक्तव्य का सवाल है तो उन्होंने पंचायत के फैसले को फरमान नही बल्कि कुछ लोगों की राय कहा है। उनका कथन भी फरमानी व्यवस्था को बल देता प्रतीत होता है। इस बात को कहने में वह भी संकोच कर गये हैं कि पुरूष वर्ग स्वयं शालीन मर्यादित हो जाए तो व्यवस्था में सुधार हो सकता है। कुछ भी हो बागपत की खाप पंचायत से पुरूष वर्ग को सबक लेने की आवश्यकता है। जिसने सारी व्यवस्था के लिए पुरूष को ही दोषी सिद्घ कर दिया है।

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