‘ध’
धकार को दकार का विपरीतार्थक माना गया है। दकार में यदि देना ही देना है तो इसमें लेना ही लेना है अर्थात धारण करना। धारण करके धारणा स्थापित कराना बुद्घि का कार्य है, इसलिए बुद्घि को संस्कृत में धी: कहा गया है। गायत्री मंत्र में हम कहते हैं-धियो योन: प्रचोदयात अर्थात हे जगदीश्वर! प्यारे प्रभु, हमारी बुद्घियों (धियो) को आप सन्मार्ग में प्रेरित करो।
धारण करने का अर्थ भी बड़ा ही आवश्यक है। बुद्घि धारणावती होनी ही चाहिए अत: धारण करने के भाव को प्रकट करने के लिए धकार की रचना की गयी। हिंदी का अल्पज्ञान रखने वाले व्यक्ति के लिए घकार और धकार का अंतर समझना कठिन हो सकता है, क्योंकि इनकी आकृति लगभग समान सी है, थोड़ा सा अंतर है। बस, यह थोड़ा सा अंतर ही धकार को घकार की अपेक्षा महत्व प्रदान करता है। धकार में कुछ लेकर रख लिया जाता है, वहां संघनन है संचयीकरण है। लेकिन धकार में धारण कर उससे लाभ अर्जित कर दूसरों को लाभान्वित किया जाता है। इसलिए धकार को घकार की भांति पूर्णत: बंद नही किया गया है, अपितु ऊपर से खोला गया है। अभिप्राय है कि जो धारण किया है उसे समाजोपयोगी बनाकर सावधानी से बाहर निकाल दो। अब विचार कीजिए धन शब्द पर। धन धारण किया तो धन है, परंतु यदि उसे समाजोपयोगी कार्यों में व्यय किया जाने लगा तो वही धन सावधानी से बाहर निकला और धन के स्थान पर ‘श्री’ हो गया, क्योंकि अब वह किसी का आश्रय (इसी से आसरा शब्द बना है) हो गया। इसी को वेद ने ‘सत्यम् यश: श्रीर्मयि श्री श्रियताम्’ कहा है।
धकार का अर्थ न देना, धारण करना, रख लेना किया गया है जो वस्तु जिस रूप में ली गयी उसी रूप में दूसरों को लौटा दी गयी यह तो दान है-दकार का स्वभाव है। परंतु कोई वस्तु ली गयी और रखी पुन: परिमार्जित और परिष्कृत कर समाज को लौटा दी यहां वस्तु का स्वरूप परिवर्तन संभव है। ज्ञानार्जन किया, उस पर चिंतन किया, मनन किया, तत्पश्चात उसे समाज में सुंदर ढंग से बांट दिया यह धकार का स्वरूप है। संसार के सारे आविष्कार इसी धकार में समाहित हैं।
तराजू अर्थात तुला को संस्कृत में धट: कहा जाता है। तराजू ऐसा ही लोकोपकार कर रही है-तोल तोलकर न्यायपूर्ण शैली में सबको दिये जा रही है। इस प्रकार लोकोपकार धकार का एक गूढ़ अर्थ है। इसीलिए इससे धर्म (जिससे इहलोक में अभ्युदय की प्राप्ति और परलोक में नि:श्रेयस की सिद्घि होती है) धटिक=शिव =कल्याणकारी, धन्य, धन्वंतरि, धमनी, धरणी, धारण, धरा, धरित्री, धर्मयु (न्यायशील) धर्मत:, धर्मानुसार, धार्मिक = सदगुणों से युक्त, धार्मिक, धवल, धनुष=दुष्टों का संहार कर सज्जनों का कल्याण कराने वाला अस्त्र, धातु, धात्री, धारा, धीर, धैर्य, धूप, धूम, धृति:, ध्वनि, ध्वजा इत्यादि शब्द बने हैं। जहां धकार बीच में या अंत में आता है वहां भी यह उस शब्द के अर्थ में ऐसी ही ध्वनि उत्पन्न करता है यथा= अधिकार, अधिकारी, अधिकरण, प्राधिकरण, संधि, संध्या, समिधा, समधी आदि।
‘न’
नकार भी हिंदी वर्णमाला का एक महत्वपूर्ण वर्ण है। इसकी आकृति इस प्रकार बनाने से यह नाव जैसी बन जाती है। इसी से यह अक्षर बना माना गया है। इसी से उर्दू का नून और अंग्रेजी का एन अक्षर बना है, थोड़ी सी आकृति में फैलाव या संकोचन की आवश्यकता है, नून और एन की आकृति बन जाएगी। कुल मिलाकर हिंदी के न की ही अनुकृति वहां बनायी गयी है।
नकार को हम नकार कहकर भी बोलते हैं। जिसका अर्थ अस्वीकार करना होता है-नकार देना अर्थात अस्वीकार कर देना। इसी से स्पष्ट है कि इसका अर्थ नही, अभाव और शून्य के समानार्थक है। वामन शिवराम आप्टे ‘बृहद संस्कृत हिंदी शब्दकोष’ में इस वर्ण के विषय में लिखते हैं कि यह निषेधात्मक अव्यय नही, न तो, न का समानार्थक लोट लकार में प्रतिषेधात्मक न होकर, आज्ञा, प्रार्थना या कामना के लिए प्रयुक्त, विधिलिंग की क्रिया के साथ प्रयुक्त किये जाने पर कई बार इसका अर्थ होता है, ऐसा न हो कि, इस डर से कि, कहीं ऐसा न हो, तर्क पूर्ण लेखों में न शब्द इतिचेत के पश्चात रखा जाता है और इसका अर्थ होता है-ऐसा नही।
नाव हमें तारने में सहायक होती है, इसलिए उस जैसे अर्थ भी इस वर्ण के बनते हैं-निवेदन, नमन, नमस्ते, नम्र, नाम, नि:सरणम् (दरवाजा) निकाय-विद्वत्सभा, निंद्रा, निधि, नियति, नियत, नियामक, नियंता, नियमन, निराकरण, निर्णय, निर्गमन, निरूपण, निर्वाचन, निवास, निवृत्ति, निशांत, निष्कर्ष, निष्क्रमणिका, नीति इत्यादि।
अब प्रतिषेधात्मक अर्थों को प्रकट करने वाले शब्दों को लें। निरोध, निषेध, निरूद्घ, निरस्त, निरादर, निराश, निर्मूल, निर्वस, निष्कासन, निराहार, निष्कृत, निरसन, निकालना नीच, इत्यादि शब्द प्रतिषेधात्मक अर्थों के वाचक हैं। नियुक्ति, नियोग, नियंत्रण, निंदा, निबंध (बांधना) निबद्घ (हथकड़ी पहने हुआ) निबंधनी-हथकड़ी, नितंब, निदान, निकृष्ट, नैष्ठिक (अंतिम) नैसर्गिक, निर्लज्ज, न्यून आदि शब्द भी ध्यान देने योग्य हैं।
‘प’
पकार का अर्थ भाषाविदों ने रक्षा किया है। इसे बचाने वाला, देखभाल करने वाला, स्थिर रखने वाला-गोपा इत्यादि का समानार्थक माना गया है। भूप, नृप: भूपाल, भूपति, पति, पिता, सोभपा: इत्यादि ऐसे ही शब्द हैं।
इस वर्ण में अकार के मूलाधार में बांयी ओर एक सुंदर सी आकृति रक्षापंक्ति की भांति बनाई गयी है। रक्षापंक्ति बनाने के लिए और पकार को अर्थ देने के लिए इससे सुंदर कोई आकृति नही हो सकती। अंग्रेजी में भी यही आकृति अपनायी गयी है, अंतर केवल ये आया है कि वहां पकार की आकृति उल्टी हो गयी है। रक्षा पंक्ति मानो एक बाड़ा है, राजा (नृप) प्रजा पालक इसीलिए है कि उसका राजदण्ड और उसके राजनियम प्रजा की रक्षा करते हैं। उसकी सीमाओं में, रक्षापंक्ति में या दुर्ग में प्रजा रक्षित रहती है। पकार में अकार के मूलस्तंभ के बांयी ओर बनने वाली आकृति दुर्ग की आकृति भी बनाती है। दुर्ग का अर्थ भी दु=कठिन ग=जाना=जिसकी ओर जाना कठिन हो, अर्थात इतना रक्षित और संरक्षित स्थान कि जो शत्रु के लिए दुर्गम हो। पक्वान्न, (इसी से पकवान शब्द रूढ़ हुआ है) पक्ष, पंचायत (न्याय की रक्षक सभा) पंच-न्याय के रक्षक लोग, पत: (कपड़े-शरीर के रक्षक) पाणि, पंडित, (ज्ञान के द्वारा समाज की रक्षा करने वाला) पण-व्यापारी, इसी से बणज शब्द बना और बंजारा भी इसी से बना है। पणजी कभी भारत में व्यापार का एक अच्छा केन्द्र था। प्रणव, पत्ति-पैदल सैनिक, पत्तनम-नगर, पत्नी (नैतिक रूप से गिरने से बचाने वाली) पत्रम-पेड़ की पत्तों से ही रक्षा होती है। पत्र इन्हीं पर कभी लिखा जाता था, इसलिए चिट्ठी के लिए शुद्घ संस्कृत शब्द पत्र ही प्रयुक्त होता है। पद, पाणि, पय-दूध, पालन पोषण, इत्यादि शब्द पकार के ऐसे ही अर्थों को बताने वाले हैं। पा-रक्षणे धातु से बनाया गया है और पा पिता, पातु, पालन, परिखा इत्यादि शब्दों में प्रयुक्त हुआ है। परिचर का अर्थ रक्षक है तो प्रहरी का अर्थ भी यही है। इसी परिचर से परिचर्या, परिचार का शब्द बने हैं। परिचित भी घनिष्ठ जान पहचान के (रक्षा के से भाव को अत्यंत स्पष्ट करने वाले व्यक्ति को कहते हैं) परिक्रमा, परिग्रह, परीक्षा, परिच्छेद, प्रसिद्घि, परिगत-अहाता, परिवार, परिजन, परिधि, परिपाटी, पाक्षिक, पाठ, पाणि (हाथ)पिंड, पितामह इत्यादि शब्द भी दृष्टव्य हैं। प्रमाण हमारी युक्ति की, सिद्घांत की, मान्यता की रक्षा करता है, प्रायश्चित पापों से रक्षा करता है, प्रार्थना हमारे जीवन की रक्षक है। प्रात: अंधकार को भगाकर प्रकाश की रक्षा कर रहा है, प्रारब्ध जन्म जन्मांतरों के रक्षक शुभकर्म है।
‘फ’
फकार शनै: शनै: चलने फिरने, फुर्ती से जाने, सरकने, फूल उठने, गलती करने या दुव्र्यवहार करने के अर्थों में प्रयुक्त होता है। यह वर्ण पकार का विपरीतार्थक है। पकार यदि रक्षा करने वाले का अर्थ निष्पन्न करता है तो फकार खोलने या खुले का अर्थ निष्पन्न करता है। इस वर्ण की आकृति पर ध्यान दें- बांयी ओर पकार की सी रक्षा पंक्ति है तो दांयी ओर की घुण्डी नीचे से खुली है। बस यह खुलना ही इसकी विशेषता है। पकार में जो संरक्षित था उसे फकार ने खोलकर बाहर कर दिया। अत: इसमें आप अरक्षित हो गये, खुल गये। इससे बने शब्द फुल्ल, प्रफुल्लित, स्फुरण, स्फूर्ति ऐसा ही अर्थ दे रहे हैं। फट-सांप का फैला हुआ फण, फर्फरीक-हाथ की खुली हथेली, फल, फलित, फलितार्थ, फाल्गुन, फलता-फूलता, फेण (झाग) इत्यादि शब्द फकार के अर्थ को भलीभांति बताते हैं।
‘ब’
बकार भी हिंदी वर्णमाला का एक महत्वपूर्ण वर्ण है। इसकी आकृति में अकार के मूल स्तंभ के बांयी ओर की घुण्डी को बीच से काटा गया है। यह स्थिति हर एक उगते हुए बीज की धरती के गर्भ में होती है। पहले हर बीज (जो कि पहले से ही दो भागों में विभक्त रहता है) फुलाव के साथ उगने के लिए थोड़ा फुलाव लेता है। उसी से बकार थोड़ा फुलाव लेकर उगने की क्रिया कर रहा है। इसीलिए इस वर्ण का अर्थ, उगना, बढऩा, घुसना, समाना, छिपना आदि भावों को प्रकट करने वाला माना गया है। उगने की क्रिया भी छुपाव भरे रहस्य के साथ हो रही है, जकार की भांति यहां अभी अंकुरण नही है, अपितु एक रहस्य है और भीतर ही भीतर बढऩे और उगने की रहस्यमयी क्रिया हेाती सी जान पड़ रही है। कोष्ठबद्घता (कब्ज) इसी वर्ण को सही सही बता रहा है। बक:, बधिर, बंधन, बन्धु, बल, बलात्कार, बहुत, बहुल, बाधा, बहुधा, बाल, बीज, ब्राहमण, ब्रह्मचर्य, ब्रह्म, बोध आदि शब्द दृष्टव्य हैं।
‘ब’ के भीतर का विभाजन बड़ा रहस्य पूर्ण है। इसे समझने की आवश्यकता है। बकार मानो ब्रह्मï का गर्भ है, इसके ‘ब्’ ये दो भाग मानो सृष्टि और प्रलय के प्रतीक हैं। इस पृथ्वीलोक पर ये दोनों नर और नारी के प्रतीक हैं, और संसार के सारे द्वंद्व भावों के प्रतीक हैं। परमात्मा निराकार और निर्विकार है। वही इस दृश्यमान संसार का निमित्त और उपादान कारण है। वह सर्वव्यापक है और विश्वात्मा है। वही वह मूल तत्व है जिससे संसार की सब वस्तुएं उत्पन्न होती हैं, और अंत में प्रलयकाल में उसी में लीन हो जाती हैं। उगकर बढऩा एक अनंत प्रक्रिया की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करने वाली क्रिया है। एक ऐसी क्रिया जिसे कोई नाप न सके। जिसके रहस्य को कोई जान न सके। इसलिए बकार से ब्रह्म, ब्रह्मचर्य, बोध और बहुल जैसे शब्द बनते हैं। जिन पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है और जीवन को ऊंचाईयों की ओर ले जाया सकता है।
‘भ’
भकार बकार का विपरीतार्थक वर्ण है। जहां बकार में जानने की अपार संभावनाओं के साथ एक रहस्य समाहित था वहीं भकार में ऐसा कुछ नही रहा है। यह प्रकट करने, जाहिर करने, और बाहर करने के अर्थों को प्रकट करता है। इसीलिए ‘भा’ धातु आभा, प्रभा, भारत आदि शब्दों में आती है। बकार में जो भीतर था, बंद था, उसे भकार ने बाहर कर दिया, स्पष्ट कर दिया, प्रकाशित कर दिया। अकार के मूल स्तंभ से बांयी ओर आप देखें कि ‘भ्’ यह आकृति बाहर की ओर प्रकाश सी फेंक रही है। ‘ब’ की संदूक की तरह की आकृति से भीतर बंद कुछ नही रख रही है अपितु बाहर को फेंक रही है। भारत भी विश्वगुरू इसीलिए था कि उसका नाम ही (भारत-ज्ञान की दीप्ति में-भा में-रत रहने वाला) ऐसा था। भारत अपने से बाहर को ज्ञान का प्रकाश फेंक रहा था। इसीलिए कुछ लोगों ने इस देश को विश्वगुरू कहा तो कुछ ने इसे पारसमणि की संज्ञा भी दी। प्रकट करने, स्पष्ट करने और बाहर करने के अर्थों के लिए विभाजन, विभक्त, भोजन, अभिलाषा, भग, भगवत, भग्न, भंग, भंगुर, भज, भत्र्सना, भद्र, भर (भरण पोषण करने वाला) भयानक, भयंकर, भय, विभीषिका, भर्तृ (पति) भव्य (समक्ष विद्यमान होने वाला) भविष्यत् (आने वाले समय में होने वाला) भात, प्रतिभा, भानु:, भार, भाव, भार्या, भावना, भाषा, भास, भिक्षा, भीषण, भूषण, भुजा, भूप, भूमि, भूमिका, भ्रकुटि इत्यादि शब्द दृष्टव्य हैं।
भाषा की सीमा ही व्यक्ति की सोच की पराकाष्ठा होती है
इससे पूर्व कि वर्णों पर कुछ और लिखें, हम अभी तक के अपने पुरूषार्थ पर विचार करें। हम जितना ही अधिक स्वयं को हिंदी के वर्णों के वैज्ञानिक स्वरूप के निकट करते जा रहे हैं, उतना ही हमारा आंतरिक आनंद उसी प्रकार बढ़ रहा है जिस प्रकार कोलम्बस का आंतरिक आनंद नई दुनिया की खोज करने पर या धरती के दीखने पर बढऩे लगा था। हम भी अपनी हिंदी भाषा के वैज्ञानिक स्वरूप को चमकते देखकर ऋषियों के मानस की चिंतन भूमि को देखकर हर्षित और आनंदित हैं। वास्तव में प्राचीन काल में भारत की चहुंमुखी उन्नति का कारण ही ये था कि हमारी भाषा वैज्ञानिक थी, हमारा धर्म वैज्ञानिक था, हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराएं तक वैज्ञानिक थीं। होलिका, दीपावली, विजयदशमी, मकर-संक्रांति, श्रावणी-पर्व (रक्षाबंधन) और यहां तक कि अमावस्या व पूर्णिमा तक के छोटे पर्व भी शुद्घ वैज्ञानिकता पर आधृत थे। इनके पीछे के अर्थों को देशवासी जानते थे और जैसा जानते थे उसे उसी अर्थ में मनाते थे। आज की भांति केवल रूढि़वाद नही था। इसीलिए किसी विद्वान ने कहा है कि भाष की सीमा ही मनुष्य की सोच की परा सीमा होती है। भाषा के बिना न तो चिंतन संभव है और न मनुष्य अपने बोध को दूसरों तक सम्प्रेषित कर सकता है। इस दृष्टि से यह विचार महत्वपूर्ण है कि हमारे समग्र बोध भाषाबद्घ होते हैं।
तनिक ध्यान दें कि जब एक बालक जन्म लेता है तो वह भाषा से उस समय भी अनजान नही होता है। हां, वह बोल नही पाता है, और प्रकृति का महान चमत्कार देखिए कि वह उससे पहली बार चीख निकलवाती है। वह रोता है और हमें पता चल जाता है कि बोलने वाला आ गया है। रोने के चमत्कार में ही नमस्कार छिपा है। क्योंकि थोड़े समय के उपरांत ही यह बच्चा बड़बड़ाने लगता है और धीरे धीरे उसका वाग्यंत्र शब्द बनाने लगता है। इस प्रकार से देखा जाए तो बच्चे की पहली चीख से ही उसकी शिक्षा आरंभ हुई मानी जानी चाहिए। पुरूषार्थ तो वहीं से आरंभ हो गया। जिस दिन उसने कोई शब्द बनाया मानो उसने अपने पुरूषार्थ का एक सोपान चूम लिया। म….म्…मा, म….म्…..मा कहता कहता बच्चा मां से कहता है कि मां तू साथ रहेगी तो देखना मैं चंदा मामा तक चला जाउंगा। मां खुशी खुशी बच्चे का हाथ पिता के हाथ में दे देती है और पिता फिर आचार्य को सौंप देता है। लेकिन क्या कभी हमने सोचा कि आचार्य तक जाते जाते उस बच्चे ने कितने सोपानों को पार कर लिया? हम देखते हैं कि बच्चा अपनी मातृभाषा के अक्षरों को बड़ी शीघ्रता से लिखना सीख जाता है। इसका अर्थ है कि उस अक्षर का संचित ज्ञान उसके अंत:करण में है और वह उसकी आकृति कहीं भीतर से भी देखने का अभ्यासी हो गया है। मां के संसर्ग और संपर्क से उसका भीतरी संसार उभर आया है और वह उस संस्कार को पकड़ गया है। इसीलिए हमारे ऋषियों ने और भाषाविदों ने माता को प्रथम पाठशाला या प्रथम आचार्य कहा है।
‘म’
मकार का अर्थ काल, विष, चंद्रमा, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, यम, जल, प्रसन्नता और कल्याण के रूप में किया गया है। यम का पर्यायवाची होने से यह मृत्यु का ध्वन्यार्थक है। लेकिन चंद्रमा, शिव, प्रसन्नता व कल्याण का समानार्थक होने से यह मां और ममता का भी ध्वन्यार्थक है। मकर, यम (मृत्यु) के साक्षात मूर्ति, मक्षिका- विष से भरी मक्खी, मकरंद-कल्याणकारी मधु, मग्न-प्रसन्न, मोक्ष-परम कल्याण, मंगल, मेघ-बादल बरस कर कल्याण करते हैं, मंच-राज्यासन-प्रसन्नता का प्रतीक, मण्डप, मणि, मठ-साधक की कोठरी-आत्मकल्याण में सहायक, मत्सर-ईष्र्यालु विष से भरा, मदिरा-विष की ध्वन्यार्थक, मधुर कल्याणमय, मन-चंद्रमा के अर्थों में चंद्रमा की कलाओं की भांति मन की कलाएं भी अनेक हैं, मनीषा, मनुष्य मत्र्य का ध्वन्यार्थक, मंत्र -कल्याणार्थक, मोद-आनंद-प्रसन्नता मृतक, मृत्तिका, मास-चंद्रमा की गति से बनने वाला, इत्यादि शब्द मकार के उपरोक्त अर्थों के ही ध्वन्यार्थक हैं। इसकी आकृति में यज्ञकुण्ड का सा भान होता है, जो कल्याण का प्रतीक है।
‘य’
यकार का अर्थ पूर्ण गति, गतिमान, जाने वाला जौ, गाड़ी, भिन्न वस्तु के समानार्थक माना गया है। इस वर्ण की आकृति रथ या गाड़ी के समान है-देखने से ही लगता है कि जैसे आगे की ओर चला जा रहा है और पीछे के सभी साथियों को भी साथ लेकर चला जा रहा है। क्योंकि अकार के मूल स्तंभ के साथ अक्षर के बांयी ओर की आकृति का जुड़ाव है। इसीलिए इस अक्षर से यज्ञ जैसा अति सुंदर शब्द बनता है, जो गतिमान है और सारे समाज व संसार को साथ लेकर और गतिमान बनाकर चलता है। यज्ञ से उत्तम हवि और कोई नही हो सकती। इसीलिए यह किसी शब्द के अंत में लगने पर (प्रत्यय के रूप में) उसमें योग्यता उत्पन्न करता है। जैसे अनुकरणीय, करणीय, मननीय, यज्ञीय, दैवीय, पूजनीय, श्रद्घेय, माननीय, मानवीय इत्यादि।
यज्ञ, यजन, यजमान, याज्ञिक, यत्न (गतिमान के अर्थों में) प्रयत्न, यत्र, यथा, यंत्रणम, यश या (जाना) यशस्वी, यष्टि (लाठी) याचना, योग, यौगिक, योजना, यौवन इत्यादि शब्द यकार के उपरोक्त अर्थों को ही प्रकट करते हैं।
य जौ के लिए भी प्रयुक्त होता है। संस्कृत में यव जौ के लिए कहा जाता है। आज का जावा द्वीप कभी का यवद्वीप है, क्योंकि उसकी आकृति जौ की सी है। इसलिए उस द्वीप को हमारे पूर्वजों ने यवद्वीप का नाम दिया।
यकार अधिकतर ज में बदल जाता है, जैसे यज्ञ का जग्ग हो गया, योग का जोग हो गया, संयोग का संजोग, योगी का जोगी और युक्ति का जुगती हो गया है। (इस जुगती से जुगत और जुगत से जुगाड़ शब्द रूढ़ हो गया है) इसी प्रकार यवद्वीप का जवद्वीप हो गया जिसे अंग्रेजों ने Jawa लिखा और हिंदी में उसका जावा उच्चारण किया। हम नकलची हिंदुस्तानियों ने आधुनिकता के नाम पर अपनी मिट्टी अपने आप पीटी है, इसलिए यवद्वीप को जावा हमने उसी प्रकार बोलना आरंभ कर दिया जिस प्रकार योग को योगा, राम को रामा, और कृष्ण को कृष्णा कहना आरंभ कर दिया है।
हो सकता है इसीलिए मेरा भारत महान हो कि ये अपनी महानता को भूलकर आयातित महानता को जल्दी स्वीकार करता है। शाक और महाशोक!!
‘र’
रकार का अर्थ बाहर फेंकने अर्थात देने, प्रेम, अग्नि, गर्मी, सत्य गति, अविच्छिन्न, अस्तित्व अर्थात रमण करने जैसा होता है। पं. रघुनंदन शर्मा लिखते हैं कि ऋकार में अकार जोडऩे से ‘र’ बनता है। ऋ के वर्णन में इसका अर्थ बाहर, सत्य और गति बताया गया है। इसीलिए इससे रक्त (गतिमान है) रक्षा (बाहर की ओर से) रचना, (प्रेमपूर्ण सृजन) रत, रज, रत्न, रूप रूधिर जैसे शब्द बने हैं। पालनहार, सृजनहार, खेवनहार, जगदाधार, करतार, भरतार इत्यादि शब्दों में रकार करने वाला अविच्छन्न अस्तित्व के अंतर्गत रमण करने वाले के अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। इसी अविच्छिन्न अस्तित्व को रहस्य जैसा शब्द प्रकट करता है। परंतु, राग, रस, रसिक, रसना, रूस, रोचक, रूचिकर, रूचि इत्यादि शब्द प्रेमार्थक हैं। जबकि रश्मि, रवि जैसे शब्द अग्नि के ध्वन्यार्थक हैं।
रिसर्च स्कॉलर पं. भगवद् दत्त कहते हैं कि प्राचीन आर्यों की भाषा को आचार्यों ने अति भाषा भी कहा है। यह भाषा शब्द और अर्थ की दृष्टि से वर्तमान संपूर्ण भाषाओं की अपेक्षा शतगुण से भी अधिक विस्तृत थी। वह कहते हैं कि अति भाषा का स्वरूप जानने के लिए पाणिनि से प्राचीन लोक भाषा में रचे गये ग्रंथ अधिक सहायता देते हैं। यथा मनुस्मृति के भृगु और नारद के प्रवचन, बाल्मीकि का रामायण, शाली का आश्वशास्त्र, पराशर की ज्योतिष संहिता, चरक और सुश्रुत की संहिताएं, महाभारत तथा वायु आदि कतिपय प्राचीन पुराण, याज्ञवल्क्य स्मृति, कल्पसूत्र, वेद के अंग उपांग ग्रंथ और नारद तथा आपिशालि की शिक्षाएं आदि।
मोतियों के गोताखोरों से समुद्र की गहराई में से मोती निकालने के लिए के लिए संकेत हैं ये उपरोक्त ग्रंथ। बहुत बड़ी पूँजी छिपी है इनमें ज्ञान की। ज्ञान में पूर्ण पराकाष्ठा पाने के दर्शनों के इच्छुक इनका अध्ययन कर लाभान्वित हो सकते हैं। भारत की सांस्कृतिक धरोहर को हम आज के कुछ उन नये नारों या जुमलों में नही टोह सकेंगे जिन्हें हमने अपने मन को समझाने के लिए गढ़ लिया है-जैसे गंगा जमुनी संस्कृति। गंगा, जमुनी, संस्कृति को लोगों ने विभिन्न मजहवों के बीच एकता स्थापित कराने वाले संस्कृति कहा है। जबकि जिनसे एकता की बात की जाती हैं वो कभी एकता स्थापित नही कर पाए। क्योंकि वो अपनी मजहबी पहचान को बनाये रखकर एकता चाहते हैं। यह कैसे संभव है कि मजहबी सोच बनाए रखकर एकता की बात की जाए। मानव को मानव बनने से ही मजहब ने रोका है, और इसे गंगा, जमुनी, सस्कृति के बहाने बनाए रखने की वकालत की जाती है-सचमुच ऐसे लोगों की सोच पर तरस आता है। यदि गंगा जमुनी संस्कृति भारत में कोई है तो वह वैदिक संस्कृति है, इसी पावन संस्कृति ने मनुष्य को केवल मनुष्य की पहचान दी है और उसकी अन्य उपद्रवकारी पहचानों को मानवता के संगम पर लाकर विलीन कर दिया, उनका सारा अस्तित्व मिटा दिया। मानव केवल मानव ही रह गया है, यही इस संस्कृतिक पवित्रता है।
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