हमारे शास्त्रों की दृष्टि में ज्ञानी कौन?

प्राय: देखा गया है कि लोग ज्ञानी शब्द की गंभीरता को नही समझते। यह शब्द ही सारगर्भित है, मौलिक है। जिसका अर्थ बड़ा ही विस्तृत है, व्यापक है और आचरण से जुड़ा हुआ है। जिसकी महिमा बड़ी ही दायित्वपूर्ण है। जो लोग इसे हल्के में लेते हैं, तो लगता है उनका अध्ययन सतही है, ज्ञानी शब्द की गंभीरता में उतरे नही। प्राचीन काल में हमारे ऋषि मुनि यदि किसी को ज्ञानी शब्द से संबोधित करते थे अथवा इस उपाधि से विभूषित करते थे तो उसे पहले कड़ी कसौटियों (परीक्षा) से गुजरना पड़ता था तब उसे ज्ञानी कहते थे। मनु महाराज ने अपने प्रसिद्घ ग्रंथ मनुस्मृति में धर्म के लक्षण दस बताये हैं जबकि भगवान कृष्ण ने गीता के तेरहवें अध्याय में अर्जुन को समझाते हुए ज्ञानी पुरूष के बीस लक्षण बताये हैं-
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रह:।।
हे पार्थ! अमानित्वम् से अभिप्राय है, जिसमें मानीपन का अभाव हो, अर्थात जो केवल मान के लिए ही लालायित न रहता हो। भाव यह है कि जिसके हृदय में सर्वदा वर्ण, आश्रम, योग्यता, पद, गुण और धन वैभव को लेकर श्रेष्ठता का भाव न हो। इस संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास रामचरित मानस में और भी सरल शब्दों में कहते हैं-सबहि मानप्रद आपु अमानी, अर्थात ज्ञानी पुरूष सभी को मान देने वाले और स्वयं अमानी होते हैं। ज्ञानी पुरूष का यह पहला लक्षण है।
अदम्भित्वम् से अभिप्राय है, दिखावटीपन से दूर होना, बनावट से दूर होना। प्राय: देखा गया कि कुछ लोगों की ऐसी मानसिकता होती है जो वे हैं नही, किंतु उसका प्रदर्शन करते हैं। जैसे कोई धनी नही है किंतु धनवानों की तरह रहने का प्रदर्शन करते हैं, विद्वान हैं नही, किंतु विद्वान होने का प्रदर्शन करते हैं, गुणवान हैं नहीं किं तु गुणवान होने का प्रदर्शन करते हैं। ताकि लोग हमारा आदर करें, माला पहनायें, ऊंचे आसन पर बैठायें। ऐसे लोग दम्भी कहलाते हैं किंतु जो दम्भ से रहित हैं सच्चे अर्थों में वे ही ज्ञानी पुरूष हैं। अत: दम्भ रहित होना ज्ञानी पुरूष का दूसरा लक्षण है।
अहिंसा-मन, वाणी और शरीर से कभी किसी को किंचित मात्र भी दुख न देने का नाम अहिंसा है। अपने दैनिक जीवन में व्यावहारिक रूप से जो इस महाव्रत का पालन करता है-वह ज्ञानी पुरूष कहलाता है।
क्षांति:क्षान्ति: से अभिप्राय सहनशीलता से है अर्थात क्षमा से है। अपने में सामथ्र्य होते हुए भी अपराध करने वाले को कभी किसी प्रकार से दण्ड न मिले-ऐसा भाव रखना तथा उससे बदला लेने अथवा किसी दूसरे के द्वारा दण्ड दिलवाने का भाव न रखना ही क्षांति है। जो इस दिव्य गुण से विभूषित है, हे अर्जुन! वह ज्ञानी पुरूष है।
आर्जवम् :- हृदय की कोमलता अर्थात सरल सीधेपन के भाव को आर्जव कहते हैं। ज्ञानी पुरूष के शरीर मन और वाणी में सरलता होनी चाहिए। शरीर की सजावट (फैशन) का भाव न होना, रहन सहन में सादगी तथा चाल ढाल में स्वाभाविक सीधापन होना, बनावट अथवा ऐंठ अकड़ का न होना यह शरीर की सरलता है छल, कपट, ईष्र्या, द्वेष आदि का न होना तथा निष्कपटता, सौम्यता, हितैषिता, दया, उदारता आदि का होना यह मन की सरलता है। व्यंग्य, निंदा, चुगली आदि न करना, चुभने वाले एवं अपमान जनक वचन न बोलना तथा सरल, सरस, प्रिय और हितकारक वचन बोलना-यह वाणी की आर्जवता है, सरलता है। हे पार्थ! ऐसे पुरूषों को मैं ज्ञानियों की श्रेणी में रखता हूं।
आचार्योपासनम् :- विद्या और सदुपदेश देने वाले गुरू का नाम ही आचार्य है। ऐसे सत्पुरूषों की सेवा करना। वास्तव में उनके दिये हुए उपदेशों और सुसंस्कारों के अनुरूप जीवन जीना उनकी सच्ची उपासना है। ऐसा आचरण जो करता है, हे पार्थ वह ज्ञानी पुरूष है।
शौचं :- शौचम से अभिप्राय है-आंतरिक और बाहरी शुद्घि। अंत:करण पवित्र हो, शारीरिक और सामाजिक जीवन में पवित्रता हो, आहार, आचार, विचार सर्वदा पवित्र हों। ऐसा व्यक्ति ज्ञानी पुरूष कहलाता है।
स्थैर्यम :- स्थैर्य नाम स्थिरता का है अर्थात विपरीत परिस्थितियों में भी अपने सुसंकल्प अथवा लक्ष्य से विचलित न होना। जो जीवन आदर्श हैं उनमें अटूट निष्ठा रखना। ऐसा व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है।
आत्मविनिग्रह :- यहां आत्मा नाम मन का है। मन को वश में करना ही आत्मविनिग्रह कहलाता है। अत: जो अपने मन का निरीक्षण और नियंत्रण रखता है तथा कुचेष्टाओं, कुसंस्कारों से बचाता है एवं सुसंस्कारों की निरंतर सृष्टि करता है ऐसा व्यक्ति ज्ञानी पुरूष है।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंगार एवं च।
जन्ममृत्युजरा व्याधिदु:खदोषानुदर्शनम्।।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम् – से अभिप्राय है कि जीवन निर्वाह के लिए इंद्रियों द्वारा विषयों का सेवन करते हुए भी जिस व्यक्ति के हृदय में विषयों के प्रति राग, आसक्ति और प्रियता न हो ठीक ऐसे जैसे शराब न पीने वाले व्यक्ति को शराब की कभी स्मृति भी नही आती, किंतु शराब पीने वाला मदिरा को देखकर अपने आपको रोक नही पाता है। इसलिए जिसने अपनी इंद्रियों को विषयों से निरासक्त कर लिया है वह ज्ञानी है।
मन अहंकार एवं च-अहंकार अंत:करण की एक वृत्ति है। स्वयं (आत्मा) उस वृत्ति का ज्ञाता है परंतु भूल से स्वयं (आत्मा) को उस वृत्ति से मिलाने अर्थात उस वृत्ति को ही अपना स्वरूप मान लेने से यह मनुष्य विमूढ़ात्मा कहा जाता है इस विमूढ़ता के कारण ही अहंकार पैदा होता है। अपने में श्रेष्ठता की भावना और दूसरों को तुच्छ समझने की जो वृत्ति है-यही तो अहंकार है जिस व्यक्ति का मन अहंकार इस वृत्ति से रहित है वही तो ज्ञानी पुरूष है। आत्मज्ञानी ही अहंकार को जीत लेता है। जन्म मृत्यु जराव्याधि दुखदोषानुदर्शनम्-से अभिप्राय है कि जन्म-मृत्यु, वृद्घावस्था और रोग इत्यादि को जो नकारात्मक दृष्टिïकोण से नही अपितु सकारात्मक दृष्टिकोण से देखता है वह ज्ञानी पुरूष है।
असक्तिरनभिण्वड़: पुत्रदार गृहादिषु।
नित्यं च एमचितत्वमिष्टानिष्टों पपत्तिषु।।
अर्थात संसारिक वस्तु, व्यक्ति, घटना परिस्थिति आदि में जो प्रियता है, उसे शक्ति कहते हैं। उन शक्तियों से जो रहित है वह अशक्ति है। अत: सांसारिक वस्तुओं के प्रति जिसके मन में आसक्ति है और जो अपने पुत्र, पत्नी तथा अन्य संबंधियों के प्रति यथायोग्य बर्ताव करता है, यानि कि इनमें मोह का भाव न रखकर निर्लिप्त भाव से उनकी सेवा करता है तथा अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में भी अपना संतुलन बनाये रखता है, विवेक नही खोता है, सर्वदा समता में रहता है ऐसा व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है।
मयि चानस्ययोगेन भक्तिख्यभिचारिणी।
विविक्तदेश से वित्वमरतिर्जन संसदि।।
अर्थात जिसके हृदय में अनन्य योग का भाव हो। जो संसार की सहायता की अपेक्षा न रखकर और देहाभिमान से दूर रहकर अपने मन में यह भाव रखे कि भगवान की कृपा से ही मुझे उस परमतत्व का दर्शन होगा किसी और के सहारे से नही। ऐसा विश्वास ही अनन्यभक्ति कहाता है। यह अनन्यता का भाव भक्त के हृदय में अटल और अटूट विश्वास पैदा करता है। इस भाव से प्रेरित होकर जो व्यक्ति एकांत में रहकर परमात्म तत्व का चिंतन करता है, भजन ध्यान करता है, सत्शास्त्रों का अध्ययन करता है और उस परमतत्व को गहरा उतरकर समझता है, साधारण जनसमुदाय में जिसकी न प्रीति है और न रूचि है, अर्थात कहां क्या हो रहा है, कब क्या होगा, कैसे होगा? आदि आदि संसार की बातों से जो निरपेक्ष है और परमात्व तत्व को जानने वाले
पुरूषों के साथ जिसकी संगति है, ऐसा व्यक्ति वास्तव में ज्ञानी पुरूष है।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानाथदर्शनम्।
एतञ्ज्ञानमिति प्रोक्तिमज्ञानं यदतोन्याथा।।
अर्थात जो अध्यात्म ज्ञान में नित्य निरंतर लीन रहता है और जो सब तत्वों में परमात्मा का दर्शन करता है मन में यह भाव रखता है-उस परमब्रहमा परमात्मा के रूप एक नही अपितु अनेक हैं। उसकी दृष्टि पवित्र पाप रहित, विस्तृत और व्यापक हो जाती है। छान्दोग्य उपनिषद की यह पंक्ति सर्व खल्विदं ब्रह्म: अर्थात ब्रह्म का सबमें निवास है। उसे सामान्य आत्मा से ऊंचा उठाकर पुण्यात्मा बना देती है। इतना ही नही अपितु उसे परमात्मतत्व का अनुभव होता है। ऐसे व्यक्ति जब समाधिस्थ होकर उस परमतत्व का साक्षात्कार करते हैं तो आत्मज्ञानी कहलाते हैं, ब्रह्मïज्ञानी भी कहलाते हैं। बशर्ते कि उपरोक्त बीस सोपानों में कहीं उनका पदस्खलन न हो। अत: वास्तव में ज्ञानी वही है जो गीता में भगवान कृष्णा द्वारा बताये गये इन सूत्रों पर आरूढ़ रहे, अडिग रहे।
ज्ञानी शब्द की मीमांसा के बाद मैं इतना अवश्य कहूंगा कि प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति को यह आत्मावलोकन अवश्य करना चाहिए कि मैं कौन सी सीढ़ी पर खड़ा हूं और मुझे ज्ञानी बनने के लिए शेष कितनी सीढिय़ां और चढऩी पडेंगीं? ताकि आपका भी आत्मकल्याण हो सके।
ज्ञानी होना, अध्यात्म की राह पर चलना यह कठिन अवश्य है किंतु असंभव नहीं। प्रेयमार्ग को छोड़कर इस श्रेयमार्ग पर चलने वाला बिरला ही कोई शूरवीर होता है। ऐसी ज्ञानात्मा, पुण्यात्मा और महानात्मा से परम पिता परमात्मा की दूरी समाप्त हो जाती है। इस संदर्भ में कवि कहता है।
ध्यानी होना सहज है, पर ज्ञानी हो कोई शूर।
आत्मज्ञानी के लिए नही ब्रहमा फिर दूर।।
इसी संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में शिव पार्वती संवाद के माध्यम से बड़े ही हृदयस्पर्शी शब्दों में कहते हैं-
नर सहस्र महं सुनहू पुरारी, कोनुएक होई धमब्रत धारी। धर्मशील कोटिक महं कोई। विषय विमुख विराग रत होई।
अर्थात हे शिवजी! सुनिये हजारों पुरूषों में कोई एक धर्मव्रत धारण करने वाला होता है। और करोड़ों धर्मशीलों में से विषय त्यागी-वैरागी कोई एक दुर्लभ ही होता है।

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